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आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि हो, वाग्मिन हो, मंत्र का ज्ञाता हो, द्रव्य एवं भाव दोनों से अव्यग्रचित्त होकर षट्कर्म की साधना करने वाला हो, नित्य साधुओं की उपासना करने वाला हो, शुद्ध वंश में जन्मा हुआ हो, प्रायः हाथ में स्वर्णकंकण या मुद्रिका को धारण करने वाला हो, दुष्प्रतिग्रह से रहित हो, प्राणों का अन्त होने पर भी शूद्र के अन्न का ग्रहण नहीं करने वाला हो । बैंगन, मूलक आदि तथा पाँच उदुम्बरों का सदैव त्यागी हो, निष्कपटी हो, प्रियभाषी (मधुरभाषी) हो, विद्याप्रवाद नामक पूर्व में वर्णित मंत्र एवं कल्प का ज्ञाता हो, जीवहिंसा के स्वरूप को जानने वाला हो, सभी जीवों के प्रति करुणावान् हो इस प्रकार का उत्तम जैन ब्राह्मण-आचार्य पद के योग्य होता हैं। अब उसकी आचार्य - पदस्थापन की विधि बताते हैं । वह इस प्रकार है -
सूरि - पद के लिए उचित लग्न के आने पर यति आचार्य, अथवा उपाध्याय, अथवा विशुद्ध आगम के अर्थ को जानने वाला साधु, अथवा आचार्य - पद को प्राप्त ब्राह्मण, पूर्वोक्त गुणों से संयुक्त ब्रह्मचर्य को धारण करने वाले उस गृहस्थ विप्र को, जिसका भद्राकरण- संस्कार ( मुण्डन) किया जा चुका हो और जो मात्र शिखाधारी हो, परिधान एवं उत्तरासंग से युक्त उस उत्तम गुण वाले ब्राह्मण को पौष्टिककर्मपूर्वक, अर्थात् पौष्टिककर्म करके शुभ मुहूर्त में चैत्य, उपाश्रय, गृह, उद्यान, अथवा तीर्थ में अपने वामपार्श्व में स्थापित करके समवसरण की तीन प्रदक्षिणा करवाए। तत्पश्चात् वर्द्धमान - स्तुतियों से शक्रस्तव का पाठ करे । उसके बाद श्रुतदेवता, शान्तिदेवता, क्षेत्रदेवता, शासनदेवता, वैयावृत्त्यकरदेवता का कायोत्सर्ग एवं स्तुति बोले । तत्पश्चात् उसे सम्यक्त्वदण्डक एवं द्वादशव्रतों का उच्चारण कराए। फिर गुरु आसन पर बैठे । भावी गृहस्थ आचार्य आसन का त्याग करके विनयपूर्वक गुरु के आगे बैठे । तत्पश्चात् लग्नसमय के आने पर गुरु उसके दाएँ कान में गौतममंत्रसहित षोडशाक्षरी परमेष्ठी-महाविद्या तीन बार सुनाए । तत्पश्चात् शिष्य गुरु एवं समवसरण की तीन प्रदक्षिणा लगाकर संक्षिप्त रूप में शक्रस्तव का पाठ करे। तत्पश्चात् यदि उस समय वहाँ यतिगुरु हो, तो उनको द्वादशावर्त्तवन्दन करे और गृहस्थ गुरु हो, तो “नमोस्तु - नमोस्तु "
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