Book Title: Prayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Author(s): Mokshratnashreejiji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 417
________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 373 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि । ___- यह श्लोक बोलकर श्रेष्ठ कामिनी अथवा सेवक के हाथों से चामर ढुलवाए। तत्पश्चात् इन्द्रध्वज, मत्स्यध्वज आदि ध्वजों को आगे खड़ा करके पुष्पाक्षत पूजनपूर्वक गुरु निम्न मंत्र बोले - “ॐ अहं नमो-नमो जगन्मूर्धस्थिताय स्थिराय परमेष्ठिने भगवतेऽर्हते अहं ऊँ। ___ध्वज की सम्यक् प्रकार से पूजा करके नृप के दाएँ हाथ से उसका स्पर्श कराए। तत्पश्चात् बुक्क, ताम्रबुक्क आदि वाद्यसमूह को लाए तथा विविध प्रकार के पूजोपकरणों से उनकी सम्यक् प्रकार से पूजा करके निम्न श्लोक बोले - “यशः प्रतापौ नरनायकस्य महीतले पन्नगविष्टपेपि। सुरेन्द्र लोके भवतामुदात्तौ निःस्वानशब्दानुगतौ स चैव।" यह श्लोक बोलने के पश्चात् राजा के हाथों से धीरे से वाद्य बजवाए। इस प्रकार करने के बाद गुरु राजा को शिक्षा दे। शिक्षा देने से पूर्व गुरु राजा को कुछ नियम देते हैं, जो इस प्रकार हैं - देव, गुरु, द्विज, कुलज्येष्ठ, लिंगी, अर्थात साधु-सन्यासी को छोड़कर तुम अन्य किसी को नमस्कार मत करना, किसी के हाथों से छुआ हुआ आहार मत खाना तथा अन्य किसी के साथ भोजन भी मत करना। श्राद्ध का भोजन नहीं करना तथा अन्य पड़ोसी राजा के साथ भी भोजन मत करना। अगम्य एवं अस्पृश्य नारियों के साथ कभी भी संभोग मत करना। दूसरों द्वारा धारण किए गए वस्त्र एवं आभूषणों को धारण मत करना। कभी भी दूसरों की शय्या पर शयन मत करना, दूसरों के आसन पर मत बैठना तथा दूसरों के पात्र में भोजन मत करना। गुरु को छोड़कर अन्य किसी को अपने शय्या, आसन एवं घोड़े पर मत बैठने देना, इसी प्रकार स्वरथ पर, हाथी पर, अंबाडी पर एवं अपनी छाती पर किसी को मत बैठने देना। कांजी, क्वथित अन्न, यव, तेल एवं पांच उदुम्बर फलों का सेवन तुम कभी भी मत करना - गुरु ये नियम राजा को दे। नीति शिक्षा - स्त्री, द्विज एवं तपस्वी द्वारा हजार अपराध होने पर भी उनका कभी भी वध मत करवाना और न ही उनके अंग ___www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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