________________
आचारदिनकर (खण्ड-४)
316 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ३५. पुण्डरीक-तप -
अब पुण्डरीक-तप की विधि बताते हैं - “सप्तवर्षाणि वर्ष या पूर्णमास्यां यथाबलम्।
तपः प्रकुर्वतां पुंडरीकाख्यं तप उच्यते।।१।।" ऋषभदेव के प्रथम गणधर पुण्डरीक की आराधना के लिए यह तप बताया गया है, इसलिए इसे पुण्डरीक-तप कहते हैं। पुण्डरीक गणधर ने चैत्र पूर्णिमा के दिन सिद्धाचल पर सिद्धि की प्राप्ति की, अतः इस दिन पुंडरीकस्वामी की प्रतिमा की पूजा कर यथाशक्ति एकासन आदि के द्वारा इस तप का प्रारम्भ करे। केसरिया वस्त्र पहनकर, केसरी रंग के वस्त्र, नेत्रांजन एवं सुगंधित हल्दी के उबटन से पुण्डरीकस्वामी की पूजा करे। तत्पश्चात् प्रत्येक पूर्णिमा को शक्ति के अनुसार तप करे - इस प्रकार सात वर्ष या एक वर्ष तक करे।
इस तप के उद्यापन में स्त्री अपनी ननंद की पुत्री को तथा पुरुष अपनी बहन की पुत्री को अत्यधिक स्वादिष्ट भोजन कराकर हल्दी के रंग के दो केसरिया वस्त्र, ताम्बूल, कंकण, नूपुर आदि दे।
साधु-साध्वियों को रजोहरण, मुखवस्त्रिका, पात्रादि तथा प्रचुर मात्रा में आहार का दान दे तथा सात श्रावकों के घरों पर प्रचूर मात्रा में मिष्ठान्न भेजे। इस तप के करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह तप साधुओं एवं श्रावकों - दोनों के करने योग्य आगाढ़-तप है। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
पुंडरीक-तप, आगाढ़, वर्ष-७, चैत्र मास से आरम्भ करें। ।
मास- चैत्र वै. ज्ये. आ. श्रा. भा. आ. का. मार्ग. पौ. माघ फा. | वर्ष पू. पू. पू. पू. | पू. पू. पू. पू. पू. पू. पू. पू. ]
प्रथम वर्ष | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. द्वितीय वर्ष | उ. | उ. | उ. | उ. | उ: | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | तृतीय वर्ष | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. | उ. चौथे वर्ष उ. | उ. | उ. उ. उ. उ. उ. उ. उ. | उ. उ. उ. पाँचवे वर्ष | उ. | उ. उ. उ. उ. | उ. उ. | उ. | उ. उ. उ. | उ.
छठे वर्ष | उ. उ. | उ. | उ. | उ. उ. उ. उ. उ. | उ. | उ. उ. सातवें वर्ष | उ. उ. | उ. | उ. उ. उ. उ. उ. | उ. | उ. | उ. उ.
सात वर्ष तक प्रत्येक पूर्णिका को एकासन, उपवास आदि तप करे।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org