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आचारदिनकर (खण्ड-४) 274 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि से मन, वचन और काया के योग की शुद्धि होती है। योगशुद्धि-तप साधु तथा श्रावक - दोनों के करने योग्य आगाढ़ तप है। ८. धर्मचक्र-तप -
अब धर्मचक्र-तप की विधि बताते हैं - “विधाय प्रथम, षष्ठं षष्टिमेकान्तरास्तथा।
उपवासान् धर्मचक्रे ,कुर्याद्वल्यर्क वासरैः।।" धर्म का चक्र, अर्थात् भगवान् अरिहंत का अतिशयरूप धर्मचक्र की प्राप्ति का कारण होने से धर्मचक्र-तप कहलाता है। इस तप के प्रांरभ में षष्ठभक्त (निरन्तर दो उपवास) करके पारणा किया जाता है तथा उसके बाद एक दिन के अन्तर से साठ उपवास किए जाते हैं- इस प्रकार यह तप १२३ दिनों में पूर्ण होता है। इसके यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
धर्मचक्र-तप, कुल दिन - १२३
उ. पा. उ.पा. उ.पा. उ. पा.उ.पा.उ.पा.उ.पा.उ.पा.
पा.
पा. उ.पा.उ.पा./उ.पा.उ.पा.उ.पा.उ.पा.उ.पा.उ.पा.उ.
बनवा
./उ.पा.उ.पा./उ.पा.उ.पा.उ.पा.
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उ.पा./उ.पा./उ.पा./उ.पा.उ.पा./उ.पा.उ.पा./उ.पा./उ.पा./उ. पा.
उ.पा.उ.पा.उ. पा./उ.पा./उ.पा.उ.पा./उ.पा. उ.पा.उ.पा./उ.पा. उ. पा. उ. पा. उ. पा. उ. पा. उ.पा. उ. पा.
पा./उ.पा./उ.पा.उ.पा.उ.पा.
उद्यापन में रत्नजटित स्वर्ण अथवा चाँदी का धर्मचक्र बनवाकर जिनेश्वर की प्रतिमा के आगे चढाए या रखे। उसके बाद संघपूजा करे। यह तप करने से अतिचार- रहित बोधि की प्राप्ति होती है। यह तप यति तथा श्रावक के करने योग्य आगाढ़ तप है। ६.-१०. लघुअष्टाह्निका-तप (दोनों) - “अष्टमीभ्यां समारभ्य शुक्लाश्वयुज चैत्रयो ।
राकां यावत् सप्तवर्ष स्वशक्त्याष्टाहिनका तप : ।।' आठ - आठ दिनों का तप होने से अष्टाहिनका-तप कहलाता है। यह तप आश्विन और चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से प्रांरभ करके पूर्णिमा तक करना चाहिए। इसमें अपनी शक्ति के
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