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आचारदिनकर (खण्ड- -8)
228 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
( संकल्पित ) सामायिकव्रत को पूर्ण करने हेतु मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करने की अनुज्ञा प्रदान करें ।" इस प्रकार कहकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करता है । पुनः खमासमणा देकर कहता है
“हे भगवन् ! ( संकल्पित ) सामायिकव्रत को पूर्ण करूं ?" उस समय गुरु कहते हैं- “पुनः करने योग्य है ।" तत्पश्चात् दूसरी बार खमासमणापूर्वक कहता है - "हे भगवन् ! मैं ( संकल्पित ) सामायिकव्रत को पूर्ण करता हूँ ।" उस समय गुरु कहते हैं - "यह आचार त्यागने योग्य नहीं है ।" तत्पश्चात् श्रावक मुख पर मुखवस्त्रिका आच्छादित करके तथा सिर को भूमि पर रखकर (लगाकर ) सामायिक पारणे का निम्न सूत्र बोले भावार्थ
हे भगवन् ! दशार्णभद्र, सुदर्शन, स्थूलिभद्र और वज्रस्वामी ने घर का त्याग करके (साधु - दीक्षा लेकर ) वास्तव में जीवन सफल किया है साधु इनके समान होते हैं । ऐसे साधुओं को वन्दन करने से निश्चय ही पापकर्म नष्ट होते हैं, शंकारहित भाव की प्राप्ति होती है, मुनिराजों को शुद्ध आहार आदि देने से निर्जरा होती है, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र सम्बन्धी अभिग्रह की प्राप्ति होती है । घातीकर्मसहित छद्मस्थ मूढ़ मन वाला यह जीव किंचित्मात्र स्मरण कर सकता है ( सब नहीं), अतः जो मुझे स्मरण है, उनकी तथा जो स्मरण नहीं हो रहे हैं, वे सब मेरे दुष्कृत (पाप) मिथ्या हों, अर्थात् उनके लिए मुझे बहुत पश्चाताप हो रहा है। मैंने मन से जो-जो अशुभ चिंतन किया हो, वचन से जो-जो अशुभ बोला हो तथा काया से जो-जो अशुभ किया हो, वह मेरा सब दुष्कृत मिथ्या हो । सब जीव कर्मवश होकर चौदह राजलोक में (संसार में) भ्रमण करते हैं, मैं उन सबको क्षमा करता हूँ और वे भी मुझे क्षमा करें। हे जीवसमूह ! आप सब क्षमापना करके मुझे क्षमा करो। मैं सिद्धों की साक्षी में आलोचना करता हूँ कि मेरा किसी भी जीव के साथ वैर-भाव नहीं है सामायिक - व्रतधारी जब तक तथा जितने समय तक मन में नियम रखकर सामायिक करता है, तब तक और उतने समय तक वह ( सामायिक व्रतधारी ) अशुभ कर्मों का नाश करता है। सामायिक
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