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आचारदिनकर (खण्ड-४)
242 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि पडिक्कमामि यावत् अप्पाणं वोसिरामि"- इस प्रकार कहकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव बोले। गमनागमन का प्रतिक्रमण कहाँ-कहाँ करना चाहिए, यह बताते हुए कहते हैं - चैत्यवंदन, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण, आहारसंग्रह तथा इसी प्रकार आलोचना के समय, आगम पढ़ने से पूर्व, लोच के समय, मल-मूत्र आदि का उत्सर्ग करने पर, आवागमन करने पर, भिक्षाचर्यादि की आलोचना के समय, वसति एवं उपधि की प्रतिलेखना करने पर, ध्यान करने से पूर्व एवं सचित्त जल का स्पर्श (लेप) होने पर, कालग्रहण एवं स्वाध्याय हेतु प्रस्थापन करने पर, अप्रतिलेखित मार्ग में रात्रि के समय संचरण करने पर, बीस धनु (चार हाथ का एक धनु) परिमाण से अधिक दूर जाने पर साधु, अर्थात् श्रमणों को गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करनी चाहिए।
इस प्रकार ईर्यापथिक-प्रतिक्रमण करने के कारण बताए गए
इस प्रकार
अब चैत्यवन्दन, गुरुवंदन, क्षमापना, आलोचना, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान आदि इन सबको संयुक्त करके प्रतिक्रमण की विधि बताते हैं। सर्वप्रथम प्रभातकालीन-प्रतिक्रमण की विधि बताते है -
इरियावहि, कुस्वप्न-विशुद्धि हेतु कायोत्सर्ग, गुरुवंदन, अतीत का प्रतिक्रमण, शक्रस्तव, खड़े होकर सामायिक-दंडक बोलना, कायोत्सर्ग करना, चतुर्विंशतिस्तव बोलना, पुनः कायोत्सर्ग करना, श्रुतस्तव बोलना, पुनः कायोत्सर्ग करना, सिद्धस्तव बोलकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, वन्दन, आलोचना, संस्तारकसूत्र (प्रतिक्रमणसूत्र), वन्दन, क्षमापनावन्दन, सामायिकदंडक, कायोत्सर्ग, चतुर्विंशतिस्तव, मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, वन्दन, स्तुतित्रिक, उत्कृष्ट देववंदन एवं शक्रस्तव बोलना, प्राभातिक-प्रतिक्रमण की विधि है। अब विस्तारपूर्वक इसकी विधि बताते हैं -
सर्वप्रथम गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करे। तत्पश्चात् "कुस्सुमिणराई पायच्छित्त विशोधनार्थ करेमि काउसग्गं अन्नत्थ. यावत् अप्पाणं वोसिरामि"- इस प्रकार बोलकर कायोत्सर्ग
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