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आचारदिनकर (खण्ड-४) 249 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि तथा द्वादशावर्त्तवंदन करे। उसके बाद “इच्छामोणुसट्ठियं तथा नमोर्हत्सिद्धा." बोलकर निम्न तीन गाथाएँ बोले -
“नमोस्तु वर्धमानाय स्पर्धमानायकर्मणा। तज्जयावाप्तमोक्षाय परोक्षाय कुतीर्थिनां ।।।। येषां विकचारविन्दराज्याज्जायायः क्रमकमलावलिंदधत्याः। सदृशैरिति संगतं प्रशस्यं कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः।।२।। कषायतापार्जितजन्तु निर्वृतिं करोतु यो जैनमुखाम्बुदोद्गतः। सः शुक्रमासोद्भववृष्टिसंनिभो दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिरां ।।३।। भावार्थ -
जो कर्मरूप शत्रुओं के साथ युद्ध करते-करते अन्त में उन पर विजय पाकर मोक्ष को प्राप्त किए हुए हैं तथा जिनका स्वरूप मिथ्यात्वियों के लिए अगम्य है, ऐसे श्री महावीर प्रभु को मेरा नमस्कार हो।।१।।
जिन जिनेश्वरों के उत्तम चरण-कमलों की पंक्ति को धारण करने वाली देवरचित खिले हुए स्वर्ण-कमलों की पंक्ति के निमित्त से, अर्थात् उसे देखकर विद्वानों ने कहा है कि सदृशों के साथ अत्यन्त समागम होना प्रशंसा के योग्य है, ऐसे जिनेश्वर देव सबके लिए कल्याणकारी हों, सबके मोक्ष के निमित्त हों।।२।।
जिनेश्वर देवों की वाणी ज्येष्ठमास मेघवर्षा के सदृश अतिशीतल है, अर्थात् जैसे ज्येष्ठमास की वृष्टि ताप से पीड़ित लोगों को शीतलता पहुँचाती है, वैसे ही भगवान की वाणी कषाय से पीड़ित प्राणियों को शांति-लाभ कराती है। ऐसी शांतिदायक वाणी का मुझ पर अनुग्रह हो।।३।।
तत्पश्चात् शक्रस्तव का पाठ बोले। उसके बाद स्तोत्र बोले तथा खमासमणासूत्र पूर्वक आचार्य, उपाध्याय, गुरु एवं सर्वसाधुओं को नमस्कार करे। तत्पश्चात् दिवस सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त, अर्थात् विशोधन हेतु कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में चार बार चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव बोले। तत्पश्चात् दो बार खमासमणासूत्र से वंदन करके क्रमशः कहे - "भगवन् सज्झाय संदिसावेमि, सज्झाय करेमि। - इस प्रकार कहकर
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