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आचारदिनकर (खण्ड-४) 261 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि सागारियागारेणं आउंटण पसारेणं गुरुअब्भुट्ठाणेणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं द्रव्यसचित्त नियम देसावगासियं भोगं परिभोगं पच्चक्खाहि अन्नत्थऽणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ।"
- इस प्रकार प्रत्याख्यानों की पिण्डित (सामूहिक) विधि बताई गई है।
____ “पच्चक्खाहि" शब्द को प्रत्याख्यान कराने के लिए बोला जाता है तथा “पच्चक्खामि“ स्वयं के प्रत्याख्यान करने के लिए बोला जाता है (संक्षेप में “पच्चक्खाहि" शब्द पर का वाचक है तथा “पच्चक्खामि" स्व का वाचक है)। “पाणस्स" का प्रत्याख्यान साधुओं के लिए होता है तथा द्रव्यादि का प्रत्याख्यान गृहस्थों के लिए होता है।
साधुओं के पाणस्स के प्रत्याख्यान की विधि -
“पाणस्स लेवालेवेणं वा अलेवालेवेणं वा अत्थेण वा बहुलेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसिरइ।" यह प्रत्याख्यान साधुओं के लिए होता है।
गृहस्थों के लिए "द्रव्यसचित्त" का प्रत्याख्यान होता है। _ नमस्कारसहित, पौरुषी, पूर्वार्द्ध, एकासन, अभक्तार्थ प्रत्याख्यान में क्रमशः उग्गएसूरे नमुक्कार सहियं., पोरसियं उग्गए सूरे. चउ., साढ पोरसी. उग्गए. सूरे. उग्गए पुरिमड्ढ, सूरे उग्गए अवड्ढ, सूरे उग्गए अभत्तटुं पच्चक्खाइ सूत्र बोले। सार्द्धपोरसी, अपार्द्धपोरसी एवं पूर्वार्द्ध - इनके प्रत्याख्यानों का समावेश भी इनमें ही किया गया है तथा उनके आकार भी उन्हीं के समान हैं।
मुनिजन प्रत्याख्यान के अन्त में पाणस्स. के प्रत्याख्यान करते हैं। श्रावकजन भी प्रत्याख्यान के अन्त में द्रव्यसचित्त देसावगासियं के प्रत्याख्यान करते हैं।
पूर्व में कहे गए अनुसार, अर्थात् “हवंति सेसेसु चत्तारि" - इस वचन से इसमें चार अपवाद होते हैं।
श्रावक प्राभातिक-प्रतिक्रमण में प्रत्याख्यान के पहले सचित्तादि चौदह नियमों की संख्या करते हैं। वे चौदह नियम इस प्रकार हैं - १. सचित्त - अप्रासुक, किन्तु भक्षणीय आहार को सचित्त कहते हैं।
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