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आचारदिनकर (खण्ड-४) 245 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके क्रमशः कहे- “इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सज्झाय संदिसावेमि, सज्झाय करउं।" तत्पश्चात् नमस्कारमंत्र बोलकर दशवैकालिकसूत्र का प्रथम या प्रथम एवं द्वितीय अध्ययन अथवा "जयइ जगजीव." सूत्र की पाँच या पच्चीस गाथाएँ बैठकर बोले। तत्पश्चात् खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके- "भगवन् उपयोगं करेमि, उपयोगस्स करावणत्थं करेमि काउस्सगं. अन्नत्थ. यावत् अप्पाणं वोसिरामि"- इस प्रकार कहकर नमस्कारमंत्र का कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप में नमस्कारमंत्र बोले। तत्पश्चात् साधुजन इस प्रकार बोलते हैं - "इच्छाकारेण संदिसह । गुरु कहते हैं“लाभु"। पुनः, साधुजन कहते हैं- “भगवन् कह लेसहं" गुरु कहते है- “जह गहियं पुव साहूहिं।' पुनः, साधु कहते है- "इच्छं आवस्सियाए जस्स विजुग्गत्ति।" तत्पश्चात् क्रम से साधुओं को वन्दन करते हैं। उसके बाद साधु धर्मव्याख्यान एवं पढ़ने-पढ़ाने का कार्य करते हैं। उसका कालसूचन जैसा पूर्व में बताया गया है, उसी प्रकार है। यहाँ विशेष इतना है कि जिस समय पुरुष-परिमाण की छाया होती है, उसे पौरुषी (प्रहर) कहते हैं। इसको स्पष्ट करने हेतु आगे बताया गया है कि जब सूर्य कर्क राशि में संक्रान्त होता है, उस समय पूर्वाह्न या अपराहून में जिस समय शरीर-परिमाण की छाया होती है, उसे पौरुषी कहते हैं। इसी प्रकार सभी दिनों की पौरुषी के सम्बन्ध में जानना चाहिए। दक्षिणायन के प्रथम दिन में दायाँ कर्ण सूर्य की तरफ रखकर पुरुष खड़ा हो जाए (समय व्यतीत होने पर) जिस समय शरीर की छाया द्विपदी होती है, उस समय पौरुषी होती है। जैसा कि कहा गया है - "आषाढ़ मास में द्विपदा (दो पाद की) पौरुषी होती है, पौष मास में चतुष्पदा (चार पाद की) तथा चैत्र और आश्विन मास में त्रिपदा (तीन पाद की) पौरुषी होती है। सात रात में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और एक मास में चार अंगुल की वृद्धि-हानि होती है, (अर्थात् श्रावण से पौष तक वृद्धि होती है तथा माघ से आषाढ़ तक हानि होती है।) प्रहर में एक पाद कम सम्बन्धी अधिकार पौरुषी-छाया के आधार पर समझना चाहिए - ऐसा साधुजनों का कथन है।
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