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आचारदिनकर (खण्ड-४)
241 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि एवं साधुगाथा (जावतकेवि साहु.) बोले। उसके बाद “नमोऽर्हत्." कथनपूर्वक प्रस्तुत जिनस्तोत्र बोले। तत्पश्चात् “जयवीयराय." की गाथा बोले तथा उसके बाद आचार्य, उपाध्याय, गुरु एवं साधुओं को वन्दन करे - इस प्रकार से किया गया चैत्यवंदन उत्कृष्ट होता है।
इस प्रकार आवश्यक प्रकरण में शक्रस्तव एवं चतुर्विंशतिस्तव की यह विधि बताई गई है।
अब वन्दन की विधि बताते हैं। द्वादशावर्त्तवन्दन की विधि इस प्रकार है - जैसे कहा गया है - प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग हेतु, अपराध की क्षमापना के लिए, प्राहुणा तरीके कोई नए मुनि आए, आलोचना, प्रत्याख्यान एवं संलेखना आदि महान कार्यों के लिए द्वादशावर्त्तवन्दन करना चाहिए। यहाँ सर्वप्रथम सामान्य वन्दन करे। तत्पश्चात् उत्कृष्ट चैत्यवंदन तथा मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावर्त्तवंदन करे। तत्पश्चात् “इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं आलोएमि." - इस प्रकार कहकर पुनः द्वादशावर्त्तवन्दन करे। तत्पश्चात् "इच्छाकरेण संदिसह भगवन् देवसियं खामेमि."- इस प्रकार क्षमापन करे। पुनः द्वादशावर्त्तवन्दन करके प्रत्याख्यान करे। तत्पश्चात् आचार्य, उपाध्याय, गुरु एवं साधु को वन्दन करे। चैत्यवंदन न करने पर भी गुरु का आदर करने के लिए वन्दन करे। स्वाध्याय के समय भी वन्दन करना चाहिए। इसी प्रकार कायोत्सर्ग, क्षमापना, आलोचना एवं गुरु की उपासना - इन सभी कार्यों में भी उत्तमता की प्राप्ति के लिए वन्दन करना चाहिए। एक बार मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना द्वारा तीन बार द्वादशावर्त्तवन्दन होता है। इन तीनों ही वन्दनों में एक-एक वन्दन क्रमशः आलोचना, क्षमापना एवं प्रत्याख्यान के हेतु किया जाता है। वन्दन करने से पूर्व सभी जगह गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करे।
इस प्रकार आवश्यक प्रकरण में वन्दन की विधि संपूर्ण होती
है
अब प्रतिक्रमण की विधि बताते हैं, वह इस प्रकार है -
गुरु के आगे या स्थापनाचार्य के आगे खमासमणासूत्रपूर्वक साधक कहता हैं - "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् इरियावहियं
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