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आचारदिनकर (खण्ड-४) 227 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि पाठ बोलते हैं। श्रावक भी गुरु द्वारा बोले गए पाठ का उच्चारण करता है। तत्पश्चात् श्रावक विधिपूर्वक गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करता है। तत्पश्चात् बैठकर खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहता है - "हे भगवन् ! मुझे आसन ग्रहण करने की तथा आसन की प्रतिलेखना करने की आज्ञा दें। इस प्रकार कहकर प्रतिलेखना के पच्चीस बोलों द्वारा काष्ठासन की प्रतिलेखना करे तथा उसी प्रकार पादपोंछन की भी प्रतिलेखना करे। पुनः श्रावक खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहता है - "हे भगवन् ! मैं स्वाध्याय करूं ?" तत्पश्चात् अनुज्ञा प्राप्त होने पर खड़े होकर तीन बार नमस्कारमंत्र अथवा "जयइ जगजीवजोणी" की पाँच गाथा बोलता है। फिर क्षमाश्रमण के आगे कहता है - "हे भगवन् ! कृपा करके आप मुझे प्रत्याख्यान कराएं।
दोपहर के समय गुरु निम्न प्रत्याख्यान कराए -
“सामाइयचरियं पच्चक्खामि चउब्विहं पि आहार असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थऽणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ।
संध्या के समय गुरु "दिवसचरिम" प्रत्याख्यान न कराए। यहाँ इतना विशेष है कि श्रावक की शक्ति के अनुसार द्विविधाहार, त्रिविधाहार या चतुर्विधाहार का प्रत्याख्यान कराए।
अन्य गच्छों में सामायिक-विधि में सर्वप्रथम ईर्यापथिकी की क्रिया करते हैं, तत्पश्चात् मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करते हैं। फिर क्रमशः नमस्कारमंत्र एवं सामायिक-दण्डक का उच्चारण करते हैं। तत्पश्चात् आसन ग्रहण करना, प्रतिलेखना करना, स्वाध्याय करना, प्रत्याख्यान करना एवं गुरु तथा साधु भगवंतों को वन्दन करने की क्रिया करते हैं। सामायिक-पारणे के समय मुँहपत्ति की प्रतिलेखना करके दो बार खमासमणासूत्रपूर्वक सामायिक-पारणे की इच्छा व्यक्त करते हैं। तत्पश्चात् सामायिक- पारणे की गाथा तथा परमेष्ठीमंत्र बोलकर सामायिक को पूर्ण करते हैं।
अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट) के बाद, अर्थात् सामायिक का काल पूर्ण होने पर (श्रावक) कहता है - "हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आप मुझे
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