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आचारदिनकर (खण्ड-४)
229 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि . विधिपूर्वक ग्रहण की है और विधिपूर्वक ही पूर्ण की है - विधिपूर्वक ग्रहण करते समय तथा विधिपूर्वक पारते समय - इन दोनों प्रकार की क्रिया में जो कोई भी अविधि या आशातना हुई हो, तो मेरा वह पाप मिथ्या दुष्कृत हो। तत्पश्चात् परमेष्ठीमंत्र बोले - इस प्रकार सामायिक का यह प्रकरण पूर्ण होता है।
सामायिक का प्रसंग होने से अब यहाँ पौषध की विधि बताते हैं। जिस दिन श्रावक या श्राविका को पौषध लेने की अभिलाषा हो, उस दिन प्रातःकाल या संध्या के समय साधु या साध्वी के समीप जाए तथा अंगप्रतिलेखना करके उच्चार प्रस्रवण भूमि एवं मात्रक की प्रतिलेखना करे।
पौषध की विधि संक्षेप में इस प्रकार बताई गई है - श्रावक सर्वप्रथम गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करे। तत्पश्चात् क्रमशः पौषधव्रत ग्रहण करने हेतु मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, नमस्कारमंत्र एवं पौषधदण्डक का उच्चारण, सामायिकव्रत ग्रहण करने हेतु मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, नमस्कारमंत्र एवं सामायिकदण्डक का उच्चारण, आसन की प्रतिलेखना स्वाध्याय, गुरुवन्दन, उपधि, स्थण्डिलभूमि एवं वसति की प्रतिलेखना करे। आहार करने पर वंदना करे। यह पौषध की संक्षिप्त विधि बताई गई है।
अब उसकी व्याख्या करते हैं -
स्थापित स्थापनाचार्य के समीप जाकर गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करके श्रावक इस प्रकार बोलता है - "हे भगवन् ! इच्छापूर्वक आप मुझे पौषधव्रत ग्रहण करने के लिए मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करने की अनुज्ञा दें। इसके बाद मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके तथा खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन कर इस प्रकार कहता है - "हे भगवन् ! आज्ञा दीजिए, मैं पौषध करूं ? गुरु कहते हैं - आज्ञा है। दूसरी बार खमासमणा देकर श्रावक कहता है - "हे भगवन् ! पौषध में स्थिर होऊ ? गुरु कहते हैं - "हाँ पौषध में स्थिर बनो।' तत्पश्चात् श्रावक खड़े होकर तीन बार नमस्कारमंत्र बोलता है। तत्पश्चात् गुरु के आगे कहता है - "हे भगवन् ! पौषधदण्डक का (पौषध ग्रहण करने का पाठ) उच्चारण कराए।" तत्पश्चात् गुरु तीन
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