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आचारदिनकर (खण्ड-४)
202 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि इन दोनों गाथाओं की व्याख्या पूर्ववत् ही है।
निम्न गाथा के माध्यम से कर्मक्षय के हेतुरूप मनोरथ बताए गए हैं - “चिरसंचिय पाव-पणासणीइ भवसय सहस्स महणीए।
चउवीस जिण विणिग्गय - कहाइ बोलंतु में दिअहा।।४६ ।।" भावार्थ -
चिरकाल से संचित पापों का नाश करने वाली तथा लाखों जन्म-जन्मांतरों का नाश (अंत) करने वाली और जो सभी तीर्थंकरों के पवित्र मुखकमल से निकाली हुई हैं, ऐसी सर्वहितकारक धर्मकथा में ही, अथवा जिनेश्वरों के नाम का कीर्तन, उनके गुणों का गान और उनके चरित्रों का वर्णन आदि वचन की पद्धति द्वारा ही मेरे दिन-रात व्यतीत हों।
प्रतिक्रमण के बाद अब यहाँ निम्न गाथा से स्वयं के लिए मंगल की याचना की है"मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुअं च धम्मो अ।
सम्मदिट्ठी देवा दिंतु समाहिं च बोहिं च ।।४७।।" भावार्थ -
___ अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत (अंग, उपांग आदि शास्त्र) और धर्म - ये सब मेरे लिए मंगलरूप हों तथा सम्यग्दृष्टि-देव समाधि (चित्त की स्थिरता) एवं बोधि (सम्यक्त्व) की प्राप्ति मे मेरे सहायक हों। “पडिसिद्धाणं करणे किच्चाणमकरणे अ पडिक्कमणं।
असद्दहणे अ तहा, विवरीअ परूवणाए अ।।४८।। भावार्थ -
आगम में निषेध किए हुए स्थूल हिंसादि पापकार्यों को करने पर और सामायिक, देवपूजा आदि करने योग्य कार्यों को नहीं करने पर जो दोष लगें, तो उनको दूर करने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है तथा जैनतत्त्वों में अश्रद्धा करने पर एवं जैनागम से विरूद्ध प्ररूपण
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