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आचारदिनकर (खण्ड-४) 219 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि करना प्रतीत्यम्रक्षित अपवाद (आगार) कहलाता है।
नवनीओगाहिमए नामक गाथा के आधार पर "उत्क्षिप्तविवेक" अपवाद में तरल विकृतियों के स्पर्श के अपेक्षा से आठ नहीं वरन् नौ अपवाद होते हैं।
विकृति - मन, वचन, काया का काम आदि के साथ सम्बन्ध कराने वाला होने से तथा सद्भावों को विकारी करने से, उन्हें विकृति कहते हैं और सूत्र के अनुसार वे दस प्रकार की हैं - १. दूध २. दही ३. घी ४. तेल ५. गुड़ ६. घी एवं तेल में तले हुए पकवान - ये छ: विकृतियाँ भक्ष्य हैं। ७. मधु ८. मद्य ६. मांस एवं १०. मक्खन - ये चार विकृतियाँ अभक्ष्य हैं।
गाय, भेड़, ऊंटड़ी (मादा ऊँट), बकरी और घेटी (भेड़) के भेद से दूध पाँच प्रकार का है। ऊंटडी के दूध को छोड़कर दही आदि चार प्रकार के ही होते हैं। तिल, अलसी, कुसुंभा और सरसों के भेद से तेल भी चार प्रकार का है। गुड़ विगई के दो भेद हैं - द्रव-गुड़ और कठोर या पिण्डरूप गुड़। घी या तेल से भरी हुई कड़ाही में छन्-छन् शब्द करते हुए जो वस्तु तली जाती है, उसे कड़ाही-विकृति कहते हैं। प्रथम के दो या तीन पावे (घाण) ही कड़ाही-विकृति मानी जाती है, इसके बाद बनाई गई वस्तु योगवाहियों को निर्विकृति के प्रत्याख्यान होने पर भी आगाढ़ कारणों से कल्पनीय है। इसी प्रकार शेष विकृतियाँ भी निर्विकृति के प्रत्याख्यान में लेना कल्प्य है। अब निर्विकृतियों की विस्तार से चर्चा करते हैं -
पेय, दुग्धाटी, दुग्धावलेहिका, दुग्धसाटिका तथा खीर - ये पाँच दूध के निवियाते हैं। खीर और पेय - इन दोनों की व्याख्या प्रसिद्ध है। शेष तीन की व्याख्या इस प्रकार है -
दूध की विकृति - खटाई डालकर बनाई हुई दूध की वस्तु दुग्धसाटिका, द्राक्ष डालकर उबाला हुआ दूध पयसाटी, दूध में चावल का आटा डालकर बनाई हुई राब आदि अवलेहिका हैं।
दही की विकृति - घोलवड़ा, घोल, श्रीखण्ड, करबा, लवणयुक्त मन्थन किया हुआ सांगरी आदि से युक्त अथवा रहित दही निवियाता है।
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