________________
आचारदिनकर (खण्ड-४) 221 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि विगयरूप हो जाते हैं। प्रवाही गुड़, घी और तेल से एक अंगुलप्रमाण मिश्रित कूर आदि संस्पृष्ट द्रव्य माने जाते हैं। अर्द्ध अंगुल-प्रमाण शहद या मांस के रस से मिश्रित वस्तु संस्पृष्ट-द्रव्य है, विगयरूप नहीं होती। गुड़, मांस और मक्खन के आर्द्रामलक-प्रमाण टुकड़ों से मिश्रित भात आदि विगयरूप नहीं माने जाते हैं। इस प्रकार विकृति-प्रत्याख्यान में गृहस्थ-संस्पृष्ट-विकृति की विशेष व्याख्या की गई
अप्रावरणसूत्र -
अप्रावरणसूत्र में पाँच अपवाद (आकार) होते हैं। यतिजन एकान्त को देखकर अचेलधर्म के पालनार्थ अप्रावरण (प्रावरण से रहित) होते हैं। __ अप्रावरणसूत्र इस प्रकार है -
“अप्पावरणं पच्चक्खामि चउविहंपि आहारं - असनं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थऽणाभोगेणं सहसागारेणं सागारियागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समाहिवत्तियागारेणं वोसरामि।" भावार्थ -
मैं अप्रावरणव्रत का प्रत्याख्यान करता हूँ, अतएव अशन, पान, खादिम, स्वादिम - इन चारों ही प्रकारों के आहार का अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, महत्तराकार एवं सर्वसमाधिप्रत्ययाकार - इन पाँच अपवादों (आकारों) के सिवाय त्याग करता हूँ।
शेष सभी अभिग्रह प्रत्याख्यानों में यथा - साधुवन्दना, चैत्यवंदना आदि अभिग्रहों से युक्त प्रत्याख्यानों में चार आकार होते हैं। इसी प्रकार परिभोग, देशावकासिक आदि प्रत्याख्यानों में चार अपवाद (आकार) होते हैं, वे इस प्रकार हैं -
"देशावकासिकं भोगं परिभोगं पच्चक्खामि अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि।" भावार्थ -
_ मैं निम्न अपवाद (आकार) पूर्वक देशावकासिक, भोगोपभोग-व्रत का प्रत्याख्यान करता हूँ। वे चार अपवाद (आकार)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.