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आचारदिनकर (खण्ड-४)
200 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि खिप्पं उवसामेई, वाहिव्व सुसिक्खिओ विज्जो।।३७ ।।" भावार्थ -
जिस प्रकार सुशिक्षित अनुभवी (कुशल) वैद्य व्याधि को शीघ्र शांत कर देता है, वैसे ही सम्यक्त्वधारी सुश्रावक उस अल्प कर्मबन्ध को भी प्रतिक्रमण, पश्चाताप और प्रायश्चित्तरूप उत्तरगुण द्वारा जल्दी नाश कर देता है।
___अब निम्न दो गाथा में दिए गए दृष्टान्तों से कर्मोपशम को समझाते हैं - "जहा विसं कुट्ठ गयं, मंत मूल विसारया।
विज्जा हणंति मंतेहिं, तो तं हवइ निविसं ।।३८ ।। एवं अट्ठविहं कम्मं, राग दोस समज्जिअं।
आलोअंतो अ निंदतो, खिप्पं हणइ सुसावओ।।३६ ।।" भावार्थ -
जिस प्रकार गारूड़िक-मंत्र और जड़ी-बूटी को जानने वाला अनुभवी कुशल वैद्य रोगी के शरीर में व्याप्त स्थावर एवं जंगम विष को मंत्रादि द्वारा दूर कर देता है और उस रोगी का शरीर विषरहित हो जाता है, उसी प्रकार राग-द्वेष से बांधे हुए ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कमों को सुश्रावक गुरु के पास आलोचना तथा अपनी निंदा करते हुए शीघ्र क्षय कर डालता है।
(इसी बात को विशेष रूप से कहते हैं) "कयपावो वि मणुस्सो, आलोइय निंदिय गुरुसगासे।
होइ अइरेग लहुओ, ओहरिअ भरूव्व भारवहो ।।४०।।" भावार्थ -
जिस प्रकार बोझ उतर जाने पर भारवाहक के सिर पर भार कम हो जाता है, उसी प्रकार गुरु के सामने पाप की आलोचना तथा आत्मा की साक्षी से निन्दा करने पर सुश्रावक के पाप अत्यन्त हल्के हो जाते हैं।
अब निम्न गाथा में प्रतिक्रमण (आवश्यक) का फल बताते हैं“आवस्सएणं एएण, सावओ जइ वि बहुरओ होई।
दुक्खाणमंत किरिअं, काही अचिरेण कालेण।।४१।।"
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