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आचारदिनकर (खण्ड-४)
199 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि सिक्खा - अविनय आदि अतिचारों से युक्त हो शिक्षा ग्रहण करना।
गारवेसु - ऋद्धि, रस एवं साता में लोभ रखना - ये गौरव के अतिचार हैं।
सन्नासु - आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा एवं परिग्रहसंज्ञा का आधिक्य होना संज्ञा सम्बन्धी अतिचार हैं।
___ कसायेसु - क्रोध, मान, माया एवं लोभ का आधिक्य होना कषाय सम्बन्धी अतिचार हैं।
___ दंडेसु - जिन अशुभयोग से आत्मा दंडित होती हैं, उसे दंड कहते हैं, उसके तीन भेद हैं - १. मनोदंड २. वचनदंड ३. कायादंड।
गुत्तीसु - मन, वचन एवं काया को सत् प्रवृत्तियों में नहीं लगाना, गुप्ति सम्बन्धी अतिचार हैं।
समिईसु - ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप, उत्सर्ग आदि समितियों का प्रमादपूर्वक आचरण करना - ये समिति सम्बन्धी अतिचार हैं।
___ इस प्रकार पूर्व में कहे गए इन सभी अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ।
__ अब निम्न गाथा के माध्यम से सम्यग्दृष्टि को अल्पकर्म का बन्ध होता है, यह बताया गया है - “सम्मदिट्ठी जीवो, जइवि हु पावं समायरइ किंचि।
अप्पो सि होइ बंधो, जेण न निद्धं धसं कुणइ।।३६ ।। भावार्थ -
सम्यग्दृष्टि जीव (गृहस्थ श्रावक) को यद्यपि (प्रतिक्रमण करने के अनन्तर भी) अपना निर्वाह चलाने के लिए कुछ पाप-व्यापार अवश्य करना पड़ता है, तो भी उसको कर्मबन्ध अल्प होता है, क्योंकि वह निर्दयतापूर्वक पाप-व्यापार नहीं करता।
___ अब निम्न गाथा के माध्यम से यह बताया गया है कि किस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अल्प कर्मबन्ध का विनाश करता है -
___"तं पि हु सपडिक्कमणं, सप्परिआवं सउत्तरगुणं च।
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