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आचारदिनकर (खण्ड-४)
158 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि "मुसावाओ भासिओ वा भासाविओ वा भासिज्जंतो वा परेहि समुणुन्नाओ" भावार्थ -
स्वयं मृषावाद बोला हो, दूसरे व्यक्तियों से मृषावाद बुलवाया हो और असत्य बोलते हुए दूसरों को अच्छा माना हो।
_ “पच्चक्खामि सव्वं मुसावायं जावज्जीवाए अणिस्सिओ हं नेवसयं मुसं वएज्जा, नेवन्नेहिं मुसं वायाविज्जा मुसं वयंते वि अन्ने न समणुजाणामि" भावार्थ -
सर्वप्रकार के मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूँ। आश्रय से रहित हो मैं स्वयं कभी असत्य नहीं बोलूंगा, दूसरे व्यक्तियों से कभी असत्य नहीं बुलवाऊंगा और असत्य बोलते हुए अन्य व्यक्तियों को भी अच्छा नहीं मानूंगा।
इन गाथाओं के अतिरिक्त शेष भावार्थ पूर्ववत् ही है।
“एसु खलु मुसावायस्स वेरमणे" भावार्थ -
निश्चय से यह मृषावाद-विरमणव्रत - "हिए सुहे ..... ............. विहरामि।" इस पाठ का अर्थ भी पहले महाव्रत में कहे गए अनुसार ही
है।
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"दोच्चे भंते ! महव्वए उवढिओमि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं" भावार्थ -
हे भगवन् ! दूसरे महाव्रत में आज से समस्त प्रकार के मृषावाद भाषण का त्याग करने को उपस्थित हुआ हूँ। तृतीय महाव्रत -
"अहावरे तच्चे भन्ते ! महव्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वं भन्ते ! अदिन्नादाणं पच्चक्खामि। से गामे वा नगरे वा अरन्ने वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिण्हिज्जा नेवन्नेहिं अदिन्नं गिहाविज्जा अदिन्नं गिण्हते वि
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