________________
आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
नोट में करते हैं।
भावार्थ
है
1
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
कुछ आचार्य यहाँ देवसियं शब्द का ग्रहण देशविरति के अर्थ
-
भावार्थ
अप्रशस्त ( विकारों के वश हुई) इन्द्रियों, क्रोध आदि चार कषायों द्वारा तथा उपलक्षण से मन, वचन एवं काया के योग से राग और द्वेष के वश होकर जो ( अशुभ कर्म ) बंधा हो, उसकी मैं निन्दा करता हूँ, गर्हा करता हूँ ।
नोट इस गाथा में कर्मबंधनरूप अतिचार के कारणों को बताया गया
"जं बद्धमिंदिएहिं चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहिं ।
-
186
-
“आगमणे निगमणे, ठाणे चंकमणे अणाभोगे ।
रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि । । ४ । । "
लौटने पर ।
उपयोग (सावधानी) न रहने के कारण, अथवा राजा आदि के दबाव के कारण, अथवा नौकरी आदि की परतंत्रता के कारण मिथ्यात्व - पोषक स्थानों में जाने-आने से, अथवा वहाँ रहने से, फिरने से, घूमने से दर्शनसम्यक्त्व संबंधी जो कोई अतिचार दिन में लगे हों, उन सब दोषों से मैं निवृत्त होता हूँ ।
विशिष्टार्थ -
अभियोगे अ नियोगे, पडिक्कमे देवसिअं सव्वं । । ५ । । “
आगमणे - कार्य की समाप्ति होने पर पुनः स्वस्थान पर
निग्गमणे - किसी कार्य के लिए जाने पर ।
ठाणे - सोने या बैठने पर ।
Jain Education International
अणाभोगे - विस्मृत होने के कारण ।
अभियोगे स्वयं के मन से किसी कार्य को करना नियोग कहलाता है तथा अन्य के कारण किसी कार्य को करना अभियोग कहलाता है
“संका कंख विगिच्छा पसंस तह संथवो कुलिंगीसु । सम्मत्तस्स इआरे पडिक्कमे देवसिअं सव्वं ॥ ६ ।।“
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org