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आचारदिनकर (खण्ड-४) ___195 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि तृण, काष्ठ, मूल और औषधि आदि (बिना कारण) दूसरों को देते हुए अथवा दिलाते हुए दिवस सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ।
अतिमात्रा में स्नान, उबटन, वर्णक, विलेपन स्वयं करने या दूसरों से करवाने, अतिमात्रा में अविधिपूर्वक एवं व्यसन के रूप में शब्द, रस, गंध, स्पर्श का भोगोपभोग करने एवं वस्त्र, आसन, आभरण आदि के विषय में सेवित अनर्थदण्ड से दिवस सम्बन्धी जो छोटे-बड़े अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ।
अनर्थदण्ड विरति व्रत नाम के तीसरे गुणव्रत के विषय में लगे हुए अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ। इस व्रत के निम्न पाँच अतिचार हैं - १. इन्द्रियों में विकार पैदा करने वाली कथाएँ कहना, अथवा दूसरों का उपहास करना २. किसी को व्याकुल करने के लिए भांड आदि की भाँति हास्यादि वचन बोलना ३. अधिक बोलना या दूसरों की अतिस्तुति या निन्दा करना ४. ऊखल, मूसल आदि पापोपकरण तैयार रखना ५. आवश्यकता से अधिक भोगोपभोग की सामग्री रखना। ये क्रमशः कंदर्प, कौत्कुच्य, मौर्य, अधिकरणता एवं भोगातिरिक्तता नाम के पाँच अतिचार हैं। विशिष्टार्थ -
__ "भोगाअइरित्ते - कामशास्त्र का श्रवण एवं शारीरिक कुचेष्टाएं करना।
( सामायिक व्रत के अतिचारों की आलोचना) "तिविहे दुप्पणिहाणे, अणवट्ठाणे तहा सइ विहूणे।
सामाइय वितह-कए, पढमे सिक्खावए निंदे ।।२७।।" भावार्थ -
प्रथम सामायिक शिक्षाव्रत का सम्यक् प्रकार से पालन न करने के कारण जो अतिचार लगे हैं, उनकी मैं निंदा करता हूँ। वे पाँच अतिचार इस प्रकार हैं - १-३. मन, वचन और काया का अशुभ व्यापार ४. अनस्थान एवं ५. स्मृति न रहना, अर्थात् सामायिक की है या नहीं ? - इस प्रकार की विस्मृति होना।
(दसवें देशावकासिक-व्रत के अतिचारों की आलोचना)
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