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आचारदिनकर (खण्ड-४) 190 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि माल खरीदकर चोर को सहायता पहुँचाना। २. बढ़िया नमूना दिखाकर उसके बदले में घटिया चीज देना या मिलावट करके देना। ३. राजा की आज्ञा बिना निषिद्ध (उसके बैरी के) देशों में व्यापार के लिए जाना, अर्थात् राज्यविरूद्ध कर्म करना, कर की चोरी करना। ४. तराजू-बाट आदि सही-सही न रखकर कम देना, ज्यादा लेना। ५. छोटे-बड़े नाप रखकर न्यूनाधिक लेना-देना। - ये अतिचार सेवन करने से मुझे दिन भर में जो कोई दोष लगे हों, उनसे मैं निवृत्त होता हूँ।
(चौथे अणुव्रत के अतिचारों की आलोचना) "चउत्थे अणुव्वयम्मी, निच्चं परदार-गमण विरइओ।
आयरियमप्पसत्थे-इत्थ पमायप्पसंगेण ।।१५।। अपरिग्गहिया इत्तर अणंग विवाह तिव्व अणुरागे।
चउत्थवयस्स इआरे, पडिक्कमे देवसिअं सव्वं ।।१६।। भावार्थ -
____ अब चौथे अणुव्रत के विषय में (लगे हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण किया जाता है।) प्रमाद के प्रसंग से, अथवा क्रोधादि अप्रशस्तभाव के उदय होने से, नित्य अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय कोई भी दूसरी स्त्रीगमन-मैथुनविरति में अतिचार लगे - ऐसा जो कोई आचरण किया हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ।
चौथे व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं - १. किसी की ग्रहण न की हुई वेश्या, विधवा आदि के साथ संभोग करना। २. अल्पकाल के लिए द्रव्यादि देकर ग्रहण करने में आई हुई वेश्या, विधवा के साथ संभोग करना। ३. परस्त्री के साथ काम-क्रीड़ा या हस्तकर्मादि करना। ४. दूसरों के पुत्र-पुत्री का विवाह आदि कराना। ५. विषय-भोग करने की अत्यन्त आसक्ति तथा कामशास्त्रोचित काम-क्रीड़ा आदि करना। .
नोट - इस अणुव्रत में वेश्या, विधवा, उपेक्षित स्त्री एवं कुँवारी कन्या के साथ सम्बन्ध करना - ये सब इस व्रत के अतिचार कहे गए हैं।
(पाँचवे अणुव्रत के अतिचारों की आलोचना)
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