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आचारदिनकर (खण्ड-४) 184 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
"इन सभी गणिपिटक द्वादशांगश्रुत" के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण मूलपाठ का अर्थ पहले लिखे गए षडावश्यक के आलापक के समान
“नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइअं दुवालसंगं गणिपिडगं भगवन्तं सम्मं काएण फासन्ति पालंति पूरंति तीरंति किटंति सम्मं आणाए आराहन्ति अहं च नाराहेमि तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।' भावार्थ -
क्षमादि गुणों से युक्त उन श्रमणों को नमस्कार हो, जिन्होंने इस गणिपिटक- स्वरूप अतिशय उत्तम गुणों से युक्त द्वादशांगश्रुत हमको दिया, इस द्वादशांगश्रुत का जो सम्यक् प्रकार से काया से संस्पर्श करते हैं, इसे ग्रहण करते हैं, अभ्यासपूर्वक इसका रक्षण करते हैं, परिपूर्ण रूप से इसका अध्ययन करते हैं, जीवनपर्यन्त इसको धारण करते हैं, इसकी स्तवना करते हैं और इसमें दिखलाई हुई आज्ञाओं का सम्यक् प्रकार से पालन करते हैं। प्रमादवश इसकी यथावत् आराधना नहीं की हो, तो उस अनाराधना सम्बन्धी मेरा दुष्कृत मिथ्या हो।
अब श्रुतदेवता की स्तुति करते हुए कहते हैं - "सुयदेवया भगवई नाणावरणीयकम्म संघायं।
तेसिं खवेउं सययं जेसिं सुयसायरे भत्ती।।१।।" भावार्थ -
जिन पुरुषों का श्रुतरूप सागर के प्रति बहुमान और विनय है, अर्थात् जो आत्मीय प्रेम एवं शुभभावना से श्रुतसागर की यथावत् भक्तिपूर्वक आराधना करते हैं, उन पुरुषों के ज्ञानावरणीयकर्म के समूह का श्रुतधिष्ठायी देवी निरन्तर विनाश करें।
अब श्रावक के प्रतिक्रमणसूत्र (वंदित्तुसूत्र) की व्याख्या करते
सर्वप्रथम नमस्कारमंत्र का पाठ करें। तत्पश्चात् श्रावक सामायिक, अर्थात् देशविरति-सामायिक-दण्डक (मूलपाठ) का उच्चारण करें। तत्पश्चात् आलोचनादण्डक का उच्चारण करें। इन सबकी व्याख्या पूर्ववत् ही है।
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