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आचारदिनकर (खण्ड-४)
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भगवन् ! उस परिग्रह सम्बन्धी पाप का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्वबुद्धि का त्याग करता
“से परिग्गहे चउविहे पन्नत्ते तं जहा दवओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओणं परिग्गहे सचित्ताचित्तमीसेसु दव्वेसु, खित्तओणं परिग्गहे लोए वा अलोए वा कालओणं परिग्गहे दिआ वा राओ वा भावओणं परिग्गहे अप्पग्घे वा महग्घे वा रागेण वा दोसेण वा" भावार्थ -
वह परिग्रह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आश्रित चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - द्रव्याश्रित परिग्रह - सचित्त, अचित्त एवं मिश्र वस्तु के प्रति मूर्छा रखने सम्बन्धी द्रव्यों में। क्षेत्राश्रित परिग्रह - लोक या अलोक में। कालाश्रित परिग्रह - दिवस या रात्रि में। भावाश्रित परिग्रह - अल्पमूल्य वस्तु या बहुमूल्य वस्तु में, राग या द्वेष से होना संभव है।
"जं पि य ..................... सायासोक्खमणु पालयंतेणं" इस पाठ का अर्थ प्रथम महाव्रत में कहे गए अनुसार ही है।
"इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु। परिग्गहो गहिओ वा गाहाविओ वा घिप्पंतो वा परेहिं समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं अईअं निंदामि, पडुप्पन्नं संवरेमि, अणागयं पच्चक्खामि, सव्वं परिग्गरं जावज्जीवाए, अणिस्सिओ हं नेव सयं परिग्गहं परिगिण्हज्जा, नेवन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हाविज्जा, परिग्गहं परिगिण्हन्ते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा, तं जहा अरिहंतसक्खिअं, सिद्धसक्खि साहूसक्खिअं देवसक्खिअं अप्पसक्खिअं एवं भवइ भिक्खू वा भिक्खुणि वा संजय विरय पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा। एस खलु परिग्गहस्स वेरमणे।"
इस मूल पाठ में प्रथम महाव्रत के स्थान पर पाँचवें परिग्रह-विरमण-महाव्रत सम्बन्धी जो-जो गाथाएँ दी गई हैं, उनका शब्दार्थ एवं भावार्थ इस प्रकार है -
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