________________
तर टेप - इन दोनों दोष का आन और
आचारदिनकर (खण्ड-४) _172 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
निश्चय ही राग और द्वेष - इन दोनों दोषों का, आर्त्त और रौद्र - इन दोनों ध्यानों का त्याग कर तीन गुप्तियों सहित मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता है।।३।।
देशविरति एवं सर्वविरतिरूप - दो प्रकार के चारित्रधर्म को तथा धर्म और शुक्ल - इन दो प्रकार के ध्यानों को प्राप्त करके साधुता के गुणों से उपसम्पन्न होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।४।। "किण्हा नीला काऊ, तिण्णि अ लेसाऊ अप्पसत्थाओ
परिवज्जतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।५।। तेऊ पम्हा सुक्का, तिण्णि य लेसाउ सुप्पसत्थाओ
उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।६।।" भावार्थ -
कृष्ण, नील एवं कापोत - ये तीन लेश्याएँ अप्रशस्त हैं, इनका त्याग कर तीन गुप्तियों से युक्त मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता
तेजो, पद्म एवं शुक्ल - ये तीन लेश्याएँ सुप्रशस्त हैं, इनको प्राप्त करके साधुत्व के गुणों से उपसम्पन्न होकर मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।६।। ___ "मणसा मणसच्चविऊ, वायासच्चेण करणसच्चेण।
तिविहेण विसच्चविऊ, रक्खामि महव्वए पंच।।७।।" भावार्थ -
कुशल मन की प्रवृत्तिरूप मन-संयम से, सत्य वचन बोलनेरूप वाणी-संयम से, कार्य हेतु उपयोग से, गमनागमन करनेरूप कायसंयम से ३, (मन-वचन-संयम से ४, मन-काय-संयम से ५, वचन-कायसंयम से ६ तथा मन, वचन, कायरूप त्रिविध सत्य- संयम से मैं एक .. संयोगी तीन, द्विक संयोगी तीन तथा त्रिक संयोगी एक - ऐसे सात भंगों सहित) पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।७।।
"चत्तारि य दुहसिज्जा, चउरो सन्ना तहा कसाया य। . परिवज्जतो गुत्तो, रक्खामि महब्वए पंच।।८।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org