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आचारदिनकर (खण्ड-४)
181 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भावार्थ -
___इस पक्ष में हमने जो भी वांचन नहीं किया हो, नहीं पढ़ा हो, अनुष्ठित नहीं किया हो, नहीं पूछा हो या अवलोकित नहीं किया हो, सिद्धान्त में जो कहा गया है या जो प्रकटतः नहीं कहा गया है, या जो अव्यक्त रहा है - उसका यदि मनन नहीं किया हो, कष्टमय अनुष्ठानों द्वारा उसका धारण नहीं किया हो, सम्यक् शारीरिक बल, धैर्य, उत्साह, एवं शक्ति होने पर भी वाचनादि में प्रयत्न नहीं किया हो, उन सभी का अध्ययन आदि नहीं करने से होने वाले पापों की आलोचना, प्रतिक्रमण, निंदा एवं गर्दा करता हूँ। पुण्य पाप का नाश करते हैं, (आत्मा की) शुद्धि करते हैं, फिर भी पुण्यकर्म नहीं करने के लिए, उनमें उद्यमवन्त नहीं होने के लिए, तपोकर्मरूप उचित प्रायश्चित्त को अंगीकार करता हूँ, तत्सम्बन्धी मेरा वह पाप मिथ्या हो।
“नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइयं अंग बाहिरं उक्कालियं भगवन्तं तं जहा-दसवेआलियं, कप्पियाकप्पिअं, चुल्लकप्पसुअं, महाकप्पसुअं, ओवाइअं, रायप्पसेणिअं जीवाभिगमो, पण्णवणा, महापण्णवणा, नन्दी अणुओगदाराई, देविंदत्थुओ, तन्दुलवेआलिअं, चन्दाविज्जियं पमायप्पमायं पोरिसि मंडलं, मंडलप्पवेसो, गणिविज्जा विज्जाचारणविणिच्छओ, झाणविभत्ती, मरणविभत्ती आयविसोही, संलेहणासुअं वीअरायसुअं, विहारकप्पो चरणविही, आउरपच्चक्खाणं, महापच्चक्खाणं।" भावार्थ -
क्षमादि गुणों से युक्त उन श्रमणों को नमस्कार हो, जिन्होंने अतिशय गुण वाले अंगबाह्य उत्कालिकसूत्र हमको दिए। वे इस प्रकार हैं - १. दशवैकालिक २. कल्प्याकल्पय ३. क्षुल्लकल्पश्रुत ४. महाकल्पश्रुत ५. औपपातिक ६. राजप्रश्नीय ७. जीवाभिगम ८. प्रज्ञापना ६. महाप्रज्ञापना १०. नंदी ११. अनुयोगद्वार १२. देवेन्द्रस्तव १३. तन्दुलवैचारिक १४. चन्द्रावेध्यक १५. प्रमादाप्रमाद १६. पौरुषीमण्डल १७. मण्डलप्रवेश १८. गणिविद्या १६. विद्याचरण
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