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आचारदिनकर (खण्ड-४)
171 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भावार्थ -
निर्दोष वसति का आश्रय लेकर शास्त्रीय-मर्यादा से विहार करते हुए, पाँच समितियों सहित, संयमयोग से एवं त्रिगुप्तियों से गुप्त होकर दसविध साधुधर्म में स्थिर रहता हुआ प्रथम व्रत का मैं रक्षण करता हूँ और प्राणातिपात से विराम लेता हूँ। इसी प्रकार मृषावाद-विरमण, अदत्तादान-विरमण, मैथुन-विरमण, परिग्रह-विरमण और रात्रिभोजन-विरमण - इन व्रतों का रक्षण करता हुआ मृषावादादि असत् पापकर्मों से सर्वथा अलग होता हूँ। ।।१३-१८ ।। “आलय विहार समिओ, जुत्तो गुत्तोठिओ समणधम्मे,
तिविहेण अपमत्तो, रक्खामि महव्वए पंच ।।१६।।"
भावार्थ -नर्दोष उपाश्रय का संहित, संयमय
निर्दोष उपाश्रय का आश्रय लेकर, शास्त्रीय-मर्यादा से विहार करते हुए पाँच समितियों सहित, संयमयोग से युक्त होकर एवं तीन गुप्तियों से गुप्त होकर दसविध श्रमणधर्म में स्थिर रहकर मैं मन, वचन एवं काया से अप्रमत्त होकर रात्रिभोजन-विरमण सहित पाँचों महाव्रतों का रक्षण एवं परिपालन करता हूँ। “सावज्ज जोगमेगं, मिच्छत्तं एगमेव अन्नाणं
परिवज्जंतो गुत्तो रक्खामि महब्वए पंच।।१।। अणवज्ज जोगमेगं, सम्मत्तं एगमेव नाणं तु
उवसंपन्नो जुत्तो, रक्खामि महब्बए पंच।।२।। भावार्थ -
तीन गुप्तियों से गुप्त होकर मैं सावधयोग, मिथ्यात्व एवं अज्ञान का त्याग करता हुआ पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।१।।
अनवद्ययोग, सम्यक्त्व एवं ज्ञान को प्राप्त करके साधुगुणों सहित मैं पाँच महाव्रतों का रक्षण करता हूँ।।२।। "दो चेव रागदोसे, दुन्नि अ झाणाई अट्टरूद्दाइं।
परिवज्जंतो गुत्तो, रक्खामि महव्वए पंच।।३।। दुविहं चरित्तधम्म, दुन्नि अ झाणाई धम्मसुक्काई।
उवसंपन्नो जुत्तो रक्खामि महव्वए पंच।।४।।" भावार्थ -
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