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आचारदिनकर (खण्ड-४) ___166 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भावार्थ -
हे भगवन् ! अन्य छठवें व्रत में रात्रिभोजन से विराम लेता हूँ। हे भगवन् ! समस्त प्रकार के रात्रिभोजन का त्याग करता हूँ। वह इस प्रकार कि - अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम को मैं स्वयं रात्रि में खाऊंगा नहीं, दूसरो को रात्रि में खिलाऊंगा नहीं तथा रात्रि में खाते हुए दूसरों को भी अच्छा नहीं मानूंगा। जीवनपर्यन्त कृत, कारित अनुमोदितरूप तीन करण से, मन, वचन एवं कायारूप त्रिविध योग से रात्रिभोजन स्वयं करूं नहीं, दूसरों से करवाऊं नहीं और रात्रिभोजन करते हुए दूसरों की भी अनुमोदना नहीं करूंगा। हे भगवन्! उस रात्रिभोजन सम्बन्धी पाप का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्वबुद्धि का त्याग करता
____ “से राइभोअणे चउविहे पन्नत्ते तं जहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओणं राईभोअणे असणे वा पाणे वा खाइमे वा साइमे वा, खित्तओणं राई भोअणे समयखित्ते, कालओणं राईभोअणे दिआ वा राओ वा भावओणं राईभोअणे तित्ते वा कडुए वा कसाए वा अंबिले वा महुरे वा लवणे वा रागेण वा दोसेण वा।" भावार्थ -
वह रात्रिभोजन द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव-आश्रित चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - द्रव्याश्रित रात्रिभोजन - अशन, पान, खादिम और स्वादिम विषयक। क्षेत्राश्रित रात्रिभोजन - समय-क्षेत्र, अर्थात् ढाई द्वीप, समुद्र में। कालाश्रित रात्रिभोजन - दिवस या रात्रि में। भावाश्रित रात्रिभोजन - तिक्त, अथवा कटु (कड़वा), अथवा कसैले, अथवा खट्टे, अथवा खारे, अथवा मीठे स्वाद की अनुभूति राग या द्वेष के वशीभूत होकर करना। __ "जं पि य मए ................. सायासोक्खमणुपालयतेणं।"
इस मूल पाठ का अर्थ प्रथम महाव्रत में किए गए अनुसार ही
"इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु, राइभोअणं भुंजिय वा भुंजाविअं वा, भुजंतं वा परेहि समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविहं
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