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आचारदिनकर (खण्ड-४)
165 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि . _ "परिग्गहो गहिओ वा गाहाविओ वा धिप्पंतो वा परेहि समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि।" भावार्थ -
स्वयं ने परिग्रह का ग्रहण किया हो या दूसरों से ग्रहण करवाया हो या परिग्रह ग्रहण करते हुए अन्यों की अनुमोदना की हो, तो उसकी मैं निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ।
"नेवसयं परिग्गहं परिगिण्हज्जा नेवन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हाविज्जा परिग्गहं परिगिण्हते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा।" भावार्थ -
___मैं स्वयं परिग्रह ग्रहण नहीं करूं, दूसरों के पास परिग्रह ग्रहण नहीं करवाऊं एवं परिग्रह ग्रहण करते हुए दूसरों की भी अनुमोदना नहीं करूं।
"एस खलु परिग्गहस्स वेरमणे" भावार्थ -
निश्चय से यह परिग्रह-विरमण-महाव्रत - "हिए सुहे .........
.... विहरामि। इस मूल पाठ का अर्थ प्रथम महाव्रत में कहे गए अनुसार ही
है।
"पंचमे भंते ! महव्वए उवट्ठिओमि सव्वाओ परिग्गहाओवेरमणं" भावार्थ -
हे भगवन् ! पाँचवें महाव्रत में समस्त प्रकार के परिग्रहविरमण-व्रत के लिए मैं उपस्थित हुआ हूँ। छठवां रात्रिभोजन-विरमणव्रत -
___“अहावरे छठे भंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं सव्वं भंते ! राइभोअणं पच्चक्खामि, से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा नेव सयं राइं भुजेज्जा नेवन्नेहिं राई भुंजाविज्जा, राई भुंजते वि अन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भन्ते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।"
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