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आचारदिनकर (खण्ड-४)
162 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भावार्थ -
वह मैथुन द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव-आश्रित चार प्रकार का है। वह इस प्रकार है - द्रव्य आश्रित मैथुन - आकृति विशेष अजीव वस्तु या रूप, लावण्य से युक्त सजीव मनुष्यादि में। क्षेत्र आश्रित मैथुन - ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में एवं तिर्यक्लोक में। काल आश्रित मैथुन - दिन में या रात्रि में। भाव आश्रित मैथुन - राग आदि के वशीभूत होने में।
"जं पि य ..................... साया सोक्खमणुपालयंतेणं" इस मूल पाठ का अर्थ प्रथम महाव्रत में किए गए अनुसार ही
"इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु मेहुणं सेविअं वा सेवाविअं वा सेविज्जंतं वा परेहि समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अईअं निंदामि पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं जावज्जीवाए अणिस्सिओ हं नेव सयं मेहुणं सेविज्जा, नेवन्नेहिं मेहुणं सेवाविज्जा मेहुणं सेवन्ते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा। तं जहा अरिहंतसक्खिअं, सिद्धसक्खिअं, साहूसक्खिअं, देवसक्खिअं, अप्पसक्खिअं, एवं भवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय विरय पडिहय पच्चक्खाय पावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा। एस खलु मेहुणस्स वेरमणे।"
. इस पाठ में प्रथम महाव्रत के स्थान पर चौथे मैथुन-विरमणव्रत सम्बन्धी जो-जो गाथाएँ दी गई हैं, उनका शब्दार्थ एवं भावार्थ इस प्रकार है -
____ "मेहुणं सेविअं वा सेवाविअं वा सेविज्जतं वा परेहि समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि।" भावार्थ -
___ मैंने स्वयं ने मैथुन का सेवन किया हो, दूसरों से करवाया हो और मैथुन का सेवन करते हुए अन्य लोगों को अच्छा माना हो, तो उसकी मैं निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ।
“नेव सयं मेहुणं सेविज्जा नेवन्नेहिं मेहुणं सेवाविज्जा मेहुणं सेवंते वि अन्नं न समणुजाणामि।"
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