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आचारदिनकर (खण्ड-४) ___159 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भन्ते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।" भावार्थ -
हे भगवन् ! अब इसके बाद तीसरे महाव्रत में अदत्तादान (तस्कर-वृत्ति) से विरत होना बताया गया है, इसलिए हे भगवन् ! सर्वप्रकार की चोरी करने का त्याग करता हूँ। वह गाँव में या नगर में, जंगल में कम मूल्य की, अथवा अल्प मूल्य की, अथवा परिमाण से छोटी या परिमाण से बड़ी, अथवा सचित्त वस्तु या अचित्त जीवरहित वस्तु हो, बिना दी हुई वस्तु को, मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा, बिना दी हुई वस्तु को दूसरों से ग्रहण नहीं करवाऊंगा एवं अदत्त वस्तु ग्रहण करते हुए दूसरों को भी अच्छा नहीं मानूंगा, अर्थात् उनकी प्रशंसा नहीं करूंगा। जीवनपर्यन्त मन-वचन-कायारूप त्रिविध योग से स्वयं अदत्त वस्तु का ग्रहण नहीं करूं, दूसरों से अदत्त वस्तु का ग्रहण नहीं करवाऊं और अदत्त वस्तु ग्रहण करने वाले अन्यों को भी अच्छा नहीं मानूं - इन त्रिविध करण से हे भगवन् ! उस अदत्तादान सम्बन्धी पाप का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्वबुद्धि का त्याग करता
"से अदिन्नादाणे चउब्विहे पन्नत्ते तं जहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ दवओणं अदिन्नादाणे गहणधारणिज्जेसु दव्वेसु, खित्तओणं अदिन्नादाणे गामे वा नगरे वा अरन्ने वा कालओणं अदिन्नादाणे दिआ वा राओ वा भावओणं अदिन्नादाणे रागेण वा दोसेण वा।" भावार्थ -
भगवान् ने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव आश्रित वह अदत्तादान चार प्रकार का बताया है। द्रव्याश्रित अदत्तादान - ग्रहण एवं धारण हो सकने वाले द्रव्यों के विषय में, क्षेत्राश्रित अदत्तादान - गाँव में या नगर में या जंगल में, कालाश्रित अदत्तादान - दिवस में या रात्रि में एवं भावाश्रित अदत्तादान - राग से या द्वेष से संभव होता है।
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