________________
आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
रूप षटूद्रव्यों की विपरीत प्ररूपणा करना, क्षेत्राश्रयी चौदह मृषावाद राजलोक परिमाण लोक एवं उसके बाहर, अर्थात् आलोक सम्बन्धी विपरीत प्ररूपणा करना, कालाश्रयी मृषावाद - दिवस और रात्रि में असत्य बोलना और भावाश्रयी मृषावाद - राग एवं द्वेष के वशीभूत होकर असत्य बोलना संभव है ।
157
जं पिय य मए इमस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स अहिंसालक्खणस्स सच्चाहिट्ठअस्स विणय मूलस्स खंतिप्पहाणस्स अहिरण्णसोवणिअस्स उवसमप्पभवस्स नवबंभचेरगुत्तस्स अपयमाणस्स भिक्खावित्तिअस्स कुक्खी संबलस्स निरग्गिसरणस्स संपक्खालिअस्स चत्त दोसस्स गुणग्गाहिअस्स निव्विआरस्स निव्वित्तिलक्खणस्स पंचमहव्वय जुत्तस्स असंनिहिसंचयस्स अविसंवाइयस्स संसारपारगामिअस्स निव्वाणगमणपज्जवसाणफलस्स पुव्विं अन्नाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणभिगमेणं, अभिगमेण वा, पमाएणं रागदोस पडिबद्धयाए बालयाए, मोहयाए, मन्दयाए किड्डुयाए तिगारवगरूआए चउक्कसाओवगएणं पंचिंदिअवसट्टेणं, पडिपुण्णभारियाए सायासोक्खमणुपालयंतेणं"
-
इस मूल पाठ का शब्दार्थ एवं भावार्थ प्रथम महाव्रत में कहे गए अनुसार ही है ।
“इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु मुसावाओ भासिओ वा भासाविओ वा भासिज्जन्तो वा परेहिं समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अईअं निंदामिं पडुप्पन्नं संवरेमि अणागयं पच्चक्खामि सव्वं मुसावायं जावज्जीवाए अणिस्सिओ हं नेव सयं मुसं वएज्जा नेवन्नेहिं मुसं वायाविज्जा मुसं वयन्ते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा । तं जहा अरिहंतसक्खिअं सिद्धसक्खिअं साहूसक्खिअं देवसक्खिअं अप्पसक्खियं एवं भवइ भिक्खू वा भिक्खूणि वा संजय विरय पsिहय पच्चक्खाय पावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा । एस खलु मुसावायस्स वेरमणे ।"
Jain Education International
इस पाठ में प्राणातिपात - विरमणव्रत के स्थान पर मृषावाद - विरमणव्रत सम्बन्धी जो-जो गाथाएँ दी गई हैं, उनका शब्दार्थ एवं भावार्थ इस प्रकार है -
V
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org