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आचारदिनकर (खण्ड-४) __144 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि है, पूर्ण हितार्थरूप सिद्धि की प्राप्ति का उपाय है, कर्मबन्धन से मुक्ति का साधन है, मोक्षस्थान का मार्ग है, पूर्ण शान्तिरूप निर्वाण का मार्ग है, मिथ्यारहित है, विच्छेदरहित, अर्थात् सनातन नित्य है तथा पूर्वापर विरोध से रहित है, सब दुःखों का पूर्णतया क्षय करने का मार्ग है।
इस निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित रहने वाले, अर्थात् तद्नुसार आचरण करने वाले भव्य जीव सिद्ध होते हैं, सर्वज्ञ होते हैं, मुक्त होते हैं, पूर्ण आत्मशान्ति को प्राप्त करते हैं, समस्त दुःखों का सदाकाल के लिए अन्त करते हैं, अर्थात् सिद्ध होते हैं।
मैं निर्ग्रन्थ प्रवचनस्वरूप धर्म की श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ, अर्थात् भक्तिपूर्वक स्वीकार करता हूँ, रुचि करता हूँ, स्पर्शना करता हूँ; पालना, अर्थात् रक्षा करता हूँ, विशेष रूप से निरन्तर पालना करता हूँ।
मैं प्रस्तुत जिन-धर्म की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ, स्पर्शना (आचरण) करता हुआ, रक्षण करता हुआ, विशेषरूपेण निरन्तर पालना करता हुआ धर्म की आराधना करने में पूर्ण रूप से अभ्युत्थित, अर्थात् सन्नद्ध हूँ और धर्म की विराधना-खण्डना से पूर्णतया निवृत्त होता हूँ।
असंयम को जानकर त्याग करता हूँ, संयम को स्वीकार करता हूँ। अब्रह्मचर्य को जानकर त्याग करता हूँ, ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ। अकृत्य को जानकर त्याग करता हूँ, कृत्य को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को जानकर त्याग करता हूँ, ज्ञान को स्वीकार करता हूँ। नास्तिवाद को जानकर त्याग करता हूँ, सम्यग्वाद को स्वीकार करता हूँ। असदाग्रह को जानकर त्याग करता हूँ, सदाग्रह को स्वीकार करता हूँ। अबोधित (मिथ्यात्व-कार्य) को जानकर त्याग करता हूँ, सम्यक्त्व-कार्य को स्वीकार करता हूँ, हिंसा आदि अमार्ग को जानकर त्याग करता हूँ, अहिंसा आदि मार्ग को स्वीकार करता हूँ।
(दोषशुद्धि) जो दोष स्मृतिस्थ है (याद है) और जो स्मृतिस्थ नहीं है, जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूँ और जिनका प्रतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ, उन सब दिवस सम्बन्धी अतिचारों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।
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