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आचारदिनकर (खण्ड-४) 148 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
___ यहाँ इस सूत्र में संध्या के समय, अर्थात् दिवस सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण करते समय “पगामसिज्जाएनिगामसिज्जाए"- यह कथन दिवस में सोने का निषेध होने से व्यर्थ है, किन्तु कदाचित् ग्रीष्मकाल में प्रमाद के कारण या खेद होने के कारण दिन में नींद ली हो, अथवा रात्रि-प्रतिक्रमण के समय शय्या सम्बन्धी अतिचारों की विस्मृति होने के कारण प्रतिक्रमण नहीं किया हो, तो उसके लिए दैवसिक प्रतिक्रमण में शय्यादण्डक का कथन किया गया है।
प्रभात में रात्रि-प्रतिक्रमण के समय “पडिक्कमामि गोयरचरियाए पडिक्कमामि चाउकालं"- यह कथन रात्रि में भिक्षाचर्या एवं प्रतिलेखना का अभाव होने के कारण अनावश्यक है, फिर भी दिवस सम्बन्धी जिन अतिचारों की आलोचना नहीं की गई है, या स्वप्न में उस प्रकार की क्रिया करने के कारण उस दोष का प्रतिक्रमण करने के लिए यह कथन किया गया है। इस प्रकार यति-प्रतिक्रमणसूत्र की व्याख्या की गई है।
अब यति के पाक्षिकसूत्र की व्याख्या करते हैं। वह इस प्रकार
"तित्थंकरे अ तित्थे, अतित्थ सिद्धे अ तित्थ सिद्धे अ। सिद्धे जिणे रिसी महरिसी य नाणं च वंदामि।।१।। जे य इमं गुण रयणसायरमविराहिऊण तिण्ण संसारा। ते मंगलं करित्ता, अहमवि आराहणाभिमुहो।।२।। मम मंगलमरिहंता, सिद्धा साहू सुय च धम्मो अ। खंति गुत्ती मुत्ती, अज्जवया मद्दवं चेव।।३।। लोगम्मि संजया जं, करिंति परम रिसिदेसिअ मुआरं। अहमवि उवट्ठिओ तं महव्वय उच्चारणं काउ।।४।।" भावार्थ -
वीतरागों को, प्रथम गणधर, संघ आदि रूप तीर्थ को, अतीर्थ सिद्धों को, तीर्थ सिद्धों को, सामान्य केवली रूप जिन को, मूल एवं उत्तर गुणों से युक्त मुनियों को, मूलगुण, उत्तरगुण एवं अणिमा आदि लब्धियों से युक्त महामुनियों को एवं मति आदि पाँच ज्ञानों को मैं वन्दन करता हूँ।।१।। जो महामुनि इस महाव्रतादि गुणरत्नरूप समुद्र को अखण्ड रीति से आराधन करके संसार-सागर को तिर गए हैं,
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