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आचारदिनकर (खण्डड-४)
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
जत्ता भे आपकी संयम - यात्रा सुखपूर्वक चल रही है । यह वन्दन का चतुर्थ स्थान है। यहाँ गुरु कहते हैं- " एवं ", अर्थात् तुम्हारी भी संयम - यात्रा सम्यक् प्रकार से चल रही है ।
“ज" शब्द का उच्चारण करते हुए गुरु के पैरों का स्पर्श करे "त्ता" शब्द का उच्चारण करते समय हाथ मध्य में ( बीच में) रखे तथा “भे" शब्द का उच्चारण करते समय दोनों हाथ अपने ललाट पर लगाए । “जवणिज्जं च भे"- इन दो शब्दों का उच्चारण करते समय भी इसी प्रकार से करे - इस प्रकार तीन आवर्त्त होते हैं तथा पहले के तीन आवर्त्त मिलाकर कुल छः आवर्त्त होते हैं । वन्दनकसूत्र का दो बार उच्चारण करने पर द्वादशावर्त्त वन्दन होता है । पुनः शिष्य कहता है - " खामेमि खमासमणो देवसियं वइकम्मणं"यह वन्दन का छठवां स्थान है । यहाँ गुरु " अहमवि खामेमि तुमे", अर्थात् तुम सब वन्दन करने वालों से मैं भी क्षमा याचना करता हूँ । तुम सब मुझे भी क्षमा करो ।
यह कहकर शिष्य उठता है और खड़े होकर आगे का शेष सूत्र बोलता है।
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पडिक्कम मि प्रायश्चित्त द्वारा अपनी आत्मा का शोधन करने के लिए मैं आपके अवग्रह में से बाहर निकलता हूँ ।
आवसियाए आसेवना द्वारा जो कुछ (कोई) भी अशुभ क्रिया की है, उसकी आलोचना करे। अवश्य करने योग्य क्रिया को
आवश्यक - क्रिया कहते हैं ।
आसायणाए - पूर्व में जो तेंतीस आशातनाएँ बताई गई हैं, उनमें से किसी का भी ।
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मणदुक्कडाए - मन में दुर्विचार किया हो या द्वेष किया हो । वयदुक्कडाए वचन से कठोर बोला हो ।
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कायदुक्कडाए - आसन, स्थिति ( खड़े होना) आदि के निमित्त काया दुष्प्रवर्तन किया हो ।
यहाँ निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि की व्याख्या पूर्ववत् जानें । इसी प्रकार द्वितीय वन्दन करे । वहाँ मात्र " आवसियाए" शब्द का, अर्थात् अवग्रह में से बाहर निकलने का कथन नहीं होता है । इस
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