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आचारदिनकर (खण्ड-४) 108 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि उनका पुनरावर्तन नहीं करना तथा जो-जो पाप जिस-जिस प्रकार से किए गए हैं, उनका तप, मूल, पारांचिक आदि प्रायश्चित्तों द्वारा शुद्धि करना - यह वीर्याचार कहा गया है।
इन पाँचों अतिचारों के विपरीत आचरण करने, मन, वचन एवं काया से इनमें दोष लगने पर, बताए गए पाँचों आचार का आचरण न करने पर अतिचार लगते हैं, वे सभी आलोचना करने तथा छोड़ने के योग्य हैं। यहाँ आलोचना की विधि सम्पूर्ण होती है। अब क्षमापन की विधि बताते हैं -
_ "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अब्भुट्टिओऽहं अब्मिंतरदेवसिअं खामेउं। (अभिंतरराइयं खामेङ) इच्छं, खामेमि देवसिअं (खामेमि राइय)।
जं किंचि अपत्तिअं, परपत्तिअं भत्ते, पाणे, विणए, वेयावच्चे, आलावे, संलावे, उच्चासणे, समासणे, अंतरभासाए, उवरिभासाए।
जं किंचि मज्झ विणयपरिहिणं सुहुमं वा बायरं वा तुब्भे जाणह, अहं न जाणामि, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।।" भावार्थ -
हे गुरु भगवन् ! आप अपनी स्वेच्छा से आज्ञा प्रदान करें। मैं दिन (रात्रि) में किए हुए अपराधों (अतिचारों) की क्षमा मांगने के लिए आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।
इच्छापूर्वक में दिवस सम्बन्धी अतिचारों की क्षमा मांगता हूँ। आहार-पानी में, विनय में, वैयावृत्य में, बोलने में, बातचीत करने में, आपसे ऊँचे या समान आसन पर बैठने में, बीच-बीच में बोलने में, आपके संभाषण के बाद बोलने में जो कोई अप्रीतिकारक, अथवा विशेष अप्रीतिकारक व्यवहार करने में आया हो तथा जो कोई अतिचार लगा हो, अथवा मुझसे जो कोई आपकी अल्प या अधिक अविनय-आशातना हुई हो, चाहे वह मुझे ज्ञात हो या अज्ञात हो, आप जानते हों, मैं नहीं जानता हूँ, आप और मैं - दोनों जानते हों, अथवा मैं और आप - दोनों न जानते हों। मेरे वे सब दुष्कृत मिथ्या हों, अर्थात् उनके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ।
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