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आचारदिनकर (खण्ड-४) 115 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
आउंटणपसारणाए - हाथ-पैर आदि संकोचना तथा इसी प्रकार हाथ-पैर को फैलाना। प्रतिलेखन किए बिना हाथ-पैर का संकोचन एवं प्रसारण करने में अतिचार लगता है।
छप्पइयासंघट्टणाए - षट्पदी, अर्थात् जूं आदि का अविधिपूर्वक स्पर्श करना।
कूइए - खांसी खांसते समय मुखवस्त्रिका को मुख पर आच्छादित नहीं करें, तो अतिचार लगता है।
___ कक्कराइए - यह शय्या विषम है, अर्थात् उबड़-खाबड़ है, शय्या हेतु यह स्थान निष्कृष्ट है, यहाँ तो ठण्डी, गर्मी, मच्छर, खटमल आदि की बहुत परेशानी है - इत्यादि शय्या के सम्बन्ध में इस प्रकार उद्वेग-पूर्वक बोलना।
छीइए-जंभाइए - छींक, जम्भाई की व्याख्या तो प्रसिद्ध है, इसलिए यहाँ नहीं बताई गई है। इन दोनों में भी मुखवस्त्रिका का उपयोग न करने पर अतिचार लगता है।
ससरक्खामोसे - पृथ्वीकाय आदि सचित्त रज से युक्त संस्तारक को छूने या उस पर सोने से अतिचार लगता है।
अब निद्रा सम्बन्धी अतिचार बताए जा रहे हैं -
सोअणवत्तियाए - स्वप्न में महारम्भ के हेतुभूत स्त्री के संयोग, विवाह तथा युद्धादि का अवलोकन करना।
इत्थीविप्परिआसिआए - स्त्री का अर्थ है- स्त्री (नारी), विपर्यय का अर्थ है- विपरीत भाव। स्वप्न में स्त्री के प्रति विपरीत भाव, अर्थात् अनुराग करना, उनके साथ समागम, संभोग एवं प्रेमालाप करना।
दिट्ठीविप्परिआसिआए - दुष्कर्मों की जो हेतुभूत है, उस प्रकार की दृष्टि रखना।
- मनविप्परिआसिआए - स्वप्न में मन में नानाविध दुष्कर्मों के भाव आना।
पाणभोअण विप्परिआसिआए - स्वप्न में भोजन-पानी की इच्छा की हो या भोजन-पान किया हो।
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