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आचारदिनकर (खण्ड-४
२४. भावना २५. विमुक्ति २६. उद्घात २८. अर्हणा ( आरोपण) ।
एगुणतीसार पावसुयपसंगेहिं - मुनि को उनतीस पापश्रुतों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। पापश्रुत के उनतीस भेद निम्नांकित हैं
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
२७. अनुद्घात एवं '
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१. अंगशास्त्र २. स्वप्नशास्त्र ३. स्वरशास्त्र ४. उत्पातशास्त्र
५. अन्तरिक्षशास्त्र ६. भौमशास्त्र ७. व्यंजनशास्त्र और ८. लक्षणशास्त्र - ये अष्टनिमित्त ही सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के भेद से चौबीस हो जाते हैं । २५. गान्धर्वशास्त्र २६. नाट्यशास्त्र २७. वास्तुशास्त्र २८. आयुर्वेद २६. धनुर्वेद ।
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तीसाए मोहणिट्ठाणेहिं - चतुर्थ मोहनीयकर्म प्रकृतिबंध के तीस स्थान, अर्थात् भेद होते हैं । वे तीस भेद इस प्रकार हैं १. त्रस जीवों को पानी में डुबाकर मारना २. प्राणियों के मुँह, नाक आदि श्वास लेने के द्वारों को हाथ से अवरुद्ध कर मारना ३. जीवों को मस्तक पर गीला चमड़ा आदि लपेटकर मारना ४. जीवों को मस्तक पर घातक प्रहार करके मारना ५. अनेक जनों के नेता का घात करना ६. समुद्र में द्वीप के समान अनाथजनों के रक्षक का घात करना ७. समर्थ होने पर भी ग्लान की सेवा न करना ८. इसने मेरी सेवा नहीं की है, अतः मैं भी इसकी सेवा क्यों करूं ? ऐसे भाव रखना। धर्ममार्ग में उपस्थित साधु को मार्ग से च्युत करना, अथवा भव्यजीवों को न्यायमार्ग से भ्रष्ट करना । ६. अनन्त ज्ञानदर्शन से सम्पन्न जिनेन्द्रदेव का अवर्णवाद बोलना १०. जिन आचार्य एवं उपाध्यायों से श्रुत और आचार ग्रहण किया है, उनकी अवहेलना करना ११. आचार्य एवं उपाध्याय की सम्यक् प्रकार से सेवा न करना १२. कलह के अनेक प्रसंग उपस्थित करना १३. चतुर्विध संघ में फूट डालना १४. जादू-टोना करना १५. वशीकरणादि अधार्मिक योग का बार-बार प्रयोग करना १६. कामभोगों का त्याग करके, अर्थात् चारित्र ग्रहण करके पुनः गृहस्थ जीवन में लौटना । १७. बहुश्रुत न होते हुए भी अपने आपको बहुश्रुत कहना, इसी प्रकार तपस्वी न होते हुए भी स्वयं को तपस्वी कहना । १८. जो कार्य स्वयं ने नहीं किया है, उसका कर्त्ता स्वयं को बताना १६. अपनी उपधि आदि को मायाचार करके
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