________________
आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
विशिष्टार्थ
किरियाणं - करण को क्रिया कहते हैं । कर्मबन्ध करने वाली चेष्टा को काय- व्यापार कहते हैं ।
कायिकी - कर्मविपाक के परिणामस्वरूप, अथवा किसी कार्य के हेतु जो शारीरिक क्रिया की जाती हैं, वह कायिकी - क्रिया है - जो देह - व्यापाररूप होती है ।
गया है ।)
-
अधिकरणिकी - अनेक प्रकार के दुष्ट व्यापारों को अधिकरण कहते हैं । अधिकरण से निष्पन्न होने वाली क्रिया अधिकरणिकी कहलाती है ।
प्राद्वेषिकी - किसी भी व्यक्ति या पदार्थ के प्रति मन में द्वेषभाव होने से प्राद्वेषिकी - क्रिया होती है ।
( मूलग्रन्थ में चौथी पारितापनिकी - क्रिया का उल्लेख नहीं किया
"
126 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
प्राणातिपात - क्रिया-हिंसा की व्याख्या सर्वप्रसिद्ध है, इसलिए उसकी व्याख्या यहाँ नहीं की गई है ।
“पडिक्कमामि पंचहिं कामगुणेहिं - सद्देणं रूवेणं गंधेणं रसेणं
फासेणं ।“
भावार्थ
शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श - इन पाँचों काम - गुणों द्वारा जो भी अतिचार लगा हो, उसका मैं प्रतिक्रमण करता 1 विशिष्टार्थ -
कामगुणेहिं काम का अर्थ है- अभिलाषा । गुण शब्द का तात्पर्य है- करना, अर्थात् शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शरूप पाँच गुणों की अभिलाषा करने को काम - गुण कहते है ।
सद्देणं - आहत ( जिसके सुनते ही मन को ठेस पहुँचे ) एवं अनाहत (मधुर स्वर आदि) रूप शब्द बोलना ।
रूवेणं विभिन्न प्रकार के रूपों का निर्माण करना । रसेणं - षटूरसों द्वारा।
गंधेणं - दुर्गन्ध एवं सुगन्धरूप गन्ध से। फासेणं - दुःखद एवं सुखदरूप स्पर्श से ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org