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आचारदिनकर (खण्ड-४) 130 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
सुक्कलेसा - शुभाशुभ भावों से रहित कर्मानुबन्ध का छेदन करने से यह लेश्या अत्यन्त निर्मल होती है।
इन लेश्याओं का विस्तृत वर्णन जामुन खाने वाले व्यक्तियों एवं ग्रामवधकों के दृष्टान्तों से जाना जा सकता है। इन लेश्याओं के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि को आगमों से जानें।
विस्तार के भय से यहाँ इस ग्रन्थ में विराधना, कषाय, संज्ञा, विकथा, ध्यान, क्रिया, कामगुण, महाव्रत, समिति, जीवनिकाय, लेश्या
आदि विषयों का विस्तृत विवेचन नहीं किया गया है। इनका विस्तृत विवेचन भी आगमों से जानें।
इसमें धर्मशुक्ल आदि ध्यानों, महाव्रतों, समितियों आदि शुभ प्रवृत्तियों के प्रतिक्रमण का जो कथन किया गया है, वह उन-उन विषयों में लगने वाले अतिचार एवं दोषों का प्रतिक्रमण करने के उद्देश्य से किया गया है। यहाँ प्रारम्भ में केवल एक ही बार प्रतिक्रमण शब्द का कथन किया गया है, उसे सभी के सन्दर्भ में समझना चाहिए। .
“पडिक्कमामि सत्तहिं भयट्ठाणेहिं, अट्ठहिं मयट्ठाणेहिं, नवहिं बंभचेरगुत्तीहिं, दसविहे समणधम्मे, एक्कारसहिं उवासगपडिमाहिं, बारसहिं भिक्खुपडिमाहिं, तेरसहिं किरियाठाणेहिं, चउद्दसहिं भूयगामेहिं, पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं, सोलसहिं गाहासोलसएहिं, सत्तरसविहे असंजमे, अट्ठारसविहे अबंभे, एगूणवीसाए नायज्झयणेहिं, वीसाए असमाहिठाणेहिं, इक्कवीसाए सबलेहिं, बावीसाए परीसहेहिं, तेवीसाए सूयगडज्झायणेहिं, चउवीसाए देवेहिं, पणवीसाए भावणाहिं, छब्बीसाए दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकालेहिं, सत्तावीसाए अणगारगुणेहिं, अट्ठावीसाए आयारप्पकप्पेहिं, एगूणतीसाए पावसुयप्पसंगेहिं, तीसाए मोहणीयट्ठाणेहिं, एगतीसाए सिद्धाइगुणेहिं, बत्तीसाए जोगसंगहेहिं, तित्तीसाए आसायणाहिं - अरिहंताणं आसायणाए, सिद्धाणं आसायणाए, आयरियाणं आसायणाए, उवज्झायाणं आसायणाए, साहूणं आसायणाए, साहुणीणं आसायणाए, सावयाणं आसायणाए, सावियाणं आसायणाए, देवाणं आसायणाए, देवीणं आसायणाए, इहलोगस्स आसायणाए, परलोगस्स आसायणाए, केवलीणं आसायणाए, केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्स
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