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आचारदिनकर (खण्ड-४)
121 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि कायदंडेहिं - काया की सावध चेष्टा करने से जिन कर्मों का बंध होता है, उसे कायदण्ड कहते हैं।
_ “पडिक्कमामि तिहिं गुत्तीहिं-मणगुत्तीए, वयगुत्तीए, कायगुत्तीए।' भावार्थ -
__ तीन प्रकार की गुप्तियों, अर्थात् मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्तियों का आचरण करते हुए प्रमादवश जो भी तत्सम्बन्धी दोष लगे हों, उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशिष्टार्थ -
गुत्तीहिं - जिसके द्वारा मन, वचन एवं काया का गोपन सम्यक् प्रकार से होता है, उसे गुप्ति कहते हैं, अथवा जिसके द्वारा मन-वचन एवं काया की गतिविधियों का नियंत्रण होता है, उसे गुप्ति कहते हैं।
___मणगुत्तीए - मनसा के बुरे विचारों का त्याग करके, अर्थात् उनका निवारण करके तथा धर्म एवं शुक्ल ध्यान द्वारा मन को नियंत्रित करने को मनगुप्ति कहते हैं।
वयगुत्तीए - मौन द्वारा, अथवा निरवद्य कथन एवं अल्पभाषण द्वारा वाचा को नियंत्रित करने को वचनगुप्ति कहते हैं।
कायगुत्तीए - दुःचेष्टा त्याग, अंगोपांग का गोपन तथा परीषह-सहनपूर्वक काया को नियंत्रित करने को कायगुप्ति कहते हैं।
इन तीनों का नियंत्रण न करने पर अतिचार लगता है।।
“पडिक्कमामि तिहिं सल्लेहिं माया-सल्लेणं, नियाण-सल्लेणं, मिच्छादसण-सल्लेणं" भावार्थ -
तीन प्रकार के शल्यों, अर्थात् मायाशल्य, निदानशल्य एवं मिथ्यादर्शनशल्य से होने वाले दोषों का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशिष्टार्थ -
तिहिंसल्लेहिं - जिसके द्वारा प्राणी को अन्तर में पीड़ा होती हो, जो कसकते हों, बाधा पहुँचाते हों, उसे शल्य कहते हैं - इस प्रकार के तीन शल्यों द्वारा।
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