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आचारदिनकर (खण्ड-४)
109 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि विशिष्टार्थ -
परपत्तियं - दूसरों के प्रति अविनय किया हो या उपदेश द्वारा दूसरों से अविनय करवाया हो। - अन्तरभासाए - गुरु कथा कर रहे हों, उस समय कथा में विघ्न पड़े- इस प्रकार बोलने से।
उवरिभासाए - गुरु के कथा करने के पश्चात् उनके कथित विषय का खण्डन करके स्वमत का स्थापन करना।
तेंतीस आशातनाओं में अशन-पान सम्बन्धी आशातनाएँ भी कही गई हैं। यहां गुरु ज्येष्ठ आदि के वचन निम्नांकित हैं -
“खामेह अहमवि खामेमि तुब्भे जं किंचि अपत्तिय परपत्तिय अविणया सारिया वारिया चोइया, पडिचोइया तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।।" भावार्थ -
क्षमापना करो। मैं भी तुमसे क्षमापना करता हूँ। जो कुछ भी अप्रीतिकारक या विशेष अप्रीतिकारक व्यवहार द्वारा जो कोई अतिचार लगा हो, अथवा अविनय, सारण, वारण, प्रेरण एवं प्रतिप्रेरण के कारण कोई अतिचार लगा हो, तो उसका पाप मेरे लिए मिथ्या हो। विशिष्टार्थ -
सारिया - मूल एवं उत्तर गुणों का लंघन करने से लगे अतिचारों का तुम्हें स्मरण कराने।
वारिया - अकरणीय कार्य को करने का निषेध करने।
चोइया - प्रेरणा करने (अर्थात् संयम में दृढ़ रहने हेतु प्रेरणा देने)।
पडिचोयणा - बारंबार प्रेरणा करने। प्रत्येक कार्य करते समय शिक्षा देने।
संघ आदि से क्षमापना निम्न सूत्र से करें - "आयरिय उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुलगणे य।
जे मे कया कसाया सव्वे तिविहेण खामेमि।।१।। सव्वस्स समण संघस्य भगवओ अंजलि करियसीसे।
सव्वं खमावइत्ता खमामि सव्वस्स अहयंपि।।२।। सव्वस्स जीवराशिस्स, भावओधम्मनिहिअनिअचित्तो।
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