________________
आचारदिनकर (खण्ड-४) 112 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
इस चैत्यवन्दनपूर्वक क्षमापना में गुरु का कथन इस प्रकार है। गुरु कहते हैं - “मैं भी उन चैत्यों को वन्दन करता हूँ।"
तृतीय क्षमापना-पाठ इस प्रकार है -
"उवट्ठिओमि तुज्झर्ण संतिअं अहा कप्पं वा वच्छं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा रयहरणं वा अक्खरं वा पयं वा गाहं वा सिलोगं वा अद्धसिलोगंवा हेउं वा पसिणं वा वागरणं वा। तुब्भेहिं चियत्तेण दिन्नं मए अविणएण पडिच्छियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं।" भावार्थ -
हे भगवन् ! मैं आपके पास उपस्थित हुआ हूँ। आपके द्वारा दिए गए स्थविरकल्प के योग्य वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण आदि सामग्री को तथा अक्षर, पद, गाथा, श्लोक, अर्द्धश्लोक आदि एवं प्रश्नों के व्याकरणरूप ज्ञानादि को आपने मुझे प्रीतिपूर्वक प्रदान किया है, फिर भी मैंने इन सबको अविनयपूर्वक ग्रहण किया हो, तो मेरा वह सब पाप मिथ्या हो। यहाँ गुरु कहते हैं - "यह गच्छ परम्परा से प्राप्त हैं, मेरा कुछ भी नही है।"
चतुर्थ क्षमापना-पाठ इस प्रकार है -
"कयाइंवि मे ये किइ कम्माइं आयारमंतरेण विणयमंतरेण सेहिओ सेहाविओ संगहिओ वग्गहिओ सारिओ, वारिओ चोइओ, पडिचोइओ चियत्तामे पडिचोयणा उवढिओहं तुज्झणं तवेतेयसिरि इमाओ चाउरंत संसार कंताराओ साहटु नित्थरिस्सामित्तिकट्ठ सिरसा, मणसा मत्थेण वंदामि।।" भावार्थ -
पूर्व में मेरे द्वारा किए गए वन्दनों में से कोई वन्दन आचार की मर्यादा के बिना किया गया हो, अविनयपूर्वक किया गया हो, उसके लिए मैं क्षमापना करता हूँ। आपके द्वारा सिखाया गया है या अन्य साधुओं द्वारा सिखाया गया, आपने अपने पास में रहने की आज्ञा दी, करने योग्य कार्य का स्मरण कराया, न करने योग्य कार्य का निषेध किया, संयम में स्थिर रहने हेतु प्रेरणा दी, बारंबार प्रेरणा दी, प्रीतिपूर्वक बारंबार प्रेरणा दी। इस समय उन-उन भूलों को सुधारने के लिए हे गुरु भगवंत ! मैं आपके सान्निध्य में उपस्थित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org