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आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
102 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
दोषों की आलोचना की आज्ञा प्रदान करे । रात्रि में शय्या के साथ शरीर का घर्षण करने, करवट बदलने, हाथ-पैर आदि संकुचित या प्रसारित करने में जो दोष लगा हो, जूँ आदि षट्पदी का स्पर्श किया हो, दुष्ट चिंतन किया हो इत्यादि सब पूर्ववत् बोलें । श्रावक की दिवस एवं रात्रि सम्बन्धी आलोचना का पाठ निम्न
" सव्वस्स वि देवसिय राईय दुच्चिंतिय दुब्भासिय, दुचिट्ठिय इच्छाकारेण संदिसह, इच्छं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं" - इसकी व्याख्या पूर्ववत् ही है ।
श्रावकों की आलोचना तथा यतियों के आचार - गोचरचर्या की आलोचना के बृहत्दण्डक सूत्र द्वारा की जाती है। यहाँ साधु के की व्याख्या की जा रही है लघुदण्डक "कालो गोयरचरिआ थंडिल्लावत्थपत्तपडिलेहा । सभरउ सहई साहूजस्सव जंकिंचि अणाउत्तं ।।9।। "
भावार्थ
-
.......
यहाँ साधु स्वाध्यायकाल, गोचरचर्या एवं प्रतिलेखना सम्बन्धी क्रियाओं में अयतना से जो कोई दोष लगा हो, उसका स्मरण करे । विशिष्टार्थ
कालो - व्याधातिक (संध्या), अर्धरात्रिक, वैरात्रिक, प्राभातिकरूप
स्वाध्यायकाल का ।
अणाउत्तं - स्वाध्यायकाल, गोचरचर्या एवं प्रतिलेखनादि क्रियाएँ व्यग्र मन से, प्रमाद से की हों, विस्मृतिपूर्वक की हों या अविधिपूर्वक की हों ।
प्रतिक्रमण के मध्य साधुओं के अतिचारों की आलोचना करने का सूत्र निम्न हैं
“सयणासणन्नपाणे चेइय जे सिज्ज
उच्चारे ।
1
-
समिईभावणागुत्ती वितहाकरणे अ अइयारा ।।"
भावार्थ
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काय
शय्यारचन,
शयन, आसन, अन्न-पान, चैत्यवंदन, कायप्रतिलेखना एवं मलमूत्र के त्याग आदि में समिति, गुप्ति और
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