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आचारदिनकर (खण्ड-४) _105 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
___ - इस प्रकार ज्ञानाचार आठ प्रकार का होता है। काल, विनय, बहुमान, उपधान, निनवण, व्यंजन, अर्थ एवं तदुभय - इन
आठों आचारों के विपरीत आचरण करने पर तथा उन पर श्रद्धा नहीं रखने पर अतिचार लगते हैं।
जैसा कि कहा किए गए पापकाया कामा उनको दूर करन
आगम में निषेध किए गए पापकार्यों को करने पर और करने योग्य सत्कार्यों को नहीं करने पर जो दोष लगे हों, उनको दूर करने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। इसी प्रकार जैन-तत्त्वज्ञान में अश्रद्धा उत्पन्न होने पर एवं जैनागम से विरूद्ध प्ररूपणा करने पर जो दोष लगे हों, उनको दूर करने के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है।
दर्शनाचार के आठ भेद इस प्रकार हैं - १. निशंकित - जिन-वचन में शंका नहीं करना। २. निःकांक्षित - कांक्षा न करना, अर्थात् जिनमत के सिवाय
अन्य मत की इच्छा न करना।
शंका और कांक्षा - इन दोनों का अर्थ-विस्तार प्रतिक्रमणसूत्र से जानें। ३. निर्विचिकित्सा - जिनोक्त तत्त्वों में निःसंशयत्व। ४. अमूढदृष्टि - तत्त्व और अतत्त्व को जानने वाली
विवेक-बुद्धि का होना। ५. उपबृंहण - अर्हत् मत का स्वशक्ति के अनुसार स्थापन
एवं पोषण करना। ६. स्थिरीकरण - जिनमत से विचलन के हजारों कारणों के
उपस्थित होने पर भी स्वयं को एवं दूसरों को जिनमत में स्थिर करना। ७. वात्सल्य - अर्हत् मताश्रित साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं
के प्रति स्नेह रखना। ८. प्रभावना - जिनशासन का उत्थान हो - इस प्रकार का
कार्य करना। यतियों की आठ धर्म-प्रभावना इस प्रकार है -
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