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आचारदिनकर (खण्ड-४) 73 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
जिन्होंने सर्व कार्य सिद्ध किए हैं, तथा सर्वभावों (पदाथों) को जान लिया है, ऐसे बुद्ध (सर्वज्ञ), संसार-समुद्र को पार पाए हुए, गुणस्थानों के अनुक्रम से मोक्ष पाए हुए तथा जो लोक के अग्रभाग पर विराजमान हैं, उन सब सिद्ध परमात्माओं को मेरा निरंतर नमस्कार हो। जो देवों के भी देव हैं, जिनको देवता दोनों हाथ जोड़कर अंजलिपूर्वक नमस्कार करते हैं तथा जो इन्द्रों से भी पूजित हैं, उन महावीरस्वामी को मैं मस्तक झुकाकर वन्दन करता हूँ।
जिनवरों में श्रेष्ठ (तीर्थकर पदवी को पाए हुए) श्री वर्द्धमानस्वामी को शुद्ध भावों से किया हुआ नमस्कार पुरुषों अथवा स्त्रियों को संसाररूपी समुद्र से त्राण दिला देता है। जिनके दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष गिरनार पर्वत के शिखर पर हुए हैं, उन धर्मचक्रवर्ती श्री अरिष्टनेमि भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ। चार, आठ, दस और दो- ऐसे क्रम से वन्दन किए हुए चौबीस जिनेश्वर तथा जो मोक्ष-सुख को प्राप्त किए हुए हैं, ऐसे सिद्ध मुझे सिद्धि प्रदान
करें।
विशिष्टार्थ -
सिद्धाणं - सिद्धों को। यहाँ सिद्धों की व्याख्या परमेष्ठीमंत्र में किए गए कथनानुसार ही है।
पारगयाणं - संसार-महासागर से पार गए हुओं को। __परंपरगयाणं - चौदह गुणस्थानों की परम्परा को प्राप्त करके मोक्ष में गए हुओं को।
लोअग्ग - मोक्ष।
सव्वसिद्धाणं - यह कथन सर्वसिद्धों का ग्रहण करने तथा सिद्धों के पन्द्रह भेदों के कथनार्थ कहा गया है। सिद्धों के पन्द्रह भेद निम्न हैं -
१. जिणसिद्ध - जिन होकर जो सिद्ध होते हैं, उन्हें
जिनसिद्ध कहते है। २. अजिणसिद्ध - जिनत्व की प्राप्ति किए बिना, अर्थात्
तीर्थकर हुए बिना ही जो गणधर, मुनि आदि के रूप में
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