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आचारदिनकर (खण्ड-४)
80 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि बार प्रमार्जना - ऐसी चौबीस प्रतिलेखना एवं षट्पदी की एक प्रतिलेखना - इस प्रकार कुल मिलाकर शरीर की २५ प्रतिलेखना होती हैं। किन्तु प्रवचनसारोद्धार में दो हाथ, दो पाँव, एक सिर, एक मुख और एक हृदय - ऐसे सात अंगों की तीन-तीन प्रमार्जना तथा पीठ की चार प्रमार्जना बताई गई हैं। इस प्रकार कुल पच्चीस प्रमार्जना बताई गई हैं। इस सूत्र का अर्थ सुखपूर्वक जाना जा सकता है, किन्तु इसकी विधि को अनुभव एवं दृष्टांत द्वारा जानें। वन्दनक के पच्चीस आवश्यक इस प्रकार हैं - दो अवनत, एक यथाजात, बारह आवर्त, चार शिरनमन, तीन गुप्ति, दो प्रवेश एवं एक निष्क्रमण - इस प्रकार वन्दन की पच्चीस आवश्यक क्रियाएँ हैं। द्वादशावर्त्तवन्दन में, जिसे कृतिकर्मवन्दन के रूप में भी जाना जाता है, दो बार अवनत होता है और दो बार उन्नत, यानी उठते हैं तथा दो बार यथाजात मुद्रा में बैठते हैं।
जन्म के समय जिस प्रकार शिशु के दोनों हाथ मुख के ऊपर रखे हुए होते हैं, उसी प्रकार वन्दन के समय भी वैसी ही मुद्रा होती
है।
प्रथम एवं द्वितीय वन्दन में क्रमशः हाथों के छ-छ: आवर्त्त होते हैं, इस प्रकार दोनों वन्दन के कुल बारह आवर्त्त होते हैं। जैसे - १. अहो २. कायं ३. काय ४. जत्ता भे ५. जवणि ६. ज्जंचभे - (इस प्रकार प्रथम वन्दन में छः आवर्त्त होते हैं और वैसे ही छ:
आवर्त्त द्वितीय वन्दन में होते हैं।) वन्दन के बीच चार बार सिर नमन होता है - दो शिष्य का तथा दो गुरु का। मन, वचन एवं काया की गुप्तिपूर्वक वन्दन त्रिगुप्त वन्दन है। वन्दन करते हुए गुरु के अवग्रह में प्रवेश दो बार होता है। गुरु के अवग्रह में से बाहर निकलना निष्क्रमण-आवश्यक है, यह वन्दन में एक बार ही होता है, अर्थात् प्रथम वन्दन के समय ही यह आवश्यक होता है, द्वितीय वन्दन में यह आवश्यक नहीं होता है। वन्दन के छः स्थान होते हैं - १. इच्छा २. अनुज्ञापना ३. अव्याबाध ४. यात्रा ५. यापनीय एवं ६. अपराध की क्षमायाचना। "इच्छामि खमासमणो" इत्यादि - यह प्रथम इच्छा- . स्थान है, “अणुजाणह मे"- यह द्वितीय
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