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आचारदिनकर (खण्ड-४)
85 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि (१४) आलोए - भिक्षादि लाकर पहले अन्य के समक्ष आलोचना करना और पश्चात् गुरु के समक्ष आलोचना करना।
(१५) उवदंस - गोचरी आदि पहले अन्य मुनि को बताकर पश्चात् गुरु को दिखाना।
(१६) निमंतण - गोचरी आदि लाकर गुरु को निमंत्रण देने से पहले अन्य साधुओं को निमंत्रण देना।
(१७) खद्धा - गोचरी लाने के बाद आचार्य गुरु आदि के योग्य अशनादि उनसे पूछे बिना ही अन्य साधुओं को उनकी रुचि के अनुसार प्रचुर मात्रा में दे देना।।
(१८) णयणे - भिक्षा में से गुरु को थोड़ा-बहुत रूक्षादि, अर्थात् रूखा-सूखा आहार देकर शेष स्निग्ध, मधुर, मनोज्ञ भोजन, शाक आदि स्वयं खा लेना।
(१६) अपडिसुणण - गुरु पूछे “यहाँ कौन है ?" उस समय जानते हुए भी जवाब न देना। (यह आशातना दिवस सम्बन्धी है। पूर्व में जो अप्पडिसुणण रूप आशातना कही गई है, वह रात्रि सम्बन्धी
(२०) खद्धति - गुरु के साथ कर्कश एवं तीखी (ऊंची) आवाज में बोलना।
(२१) तत्थगय - गुरु के बुलाने पर आसन पर बैठे-बैठे ही प्रत्युत्तर देना।
(२२) किं - गुरु के बुलाने पर, क्या है? क्या कहते हो? - ऐसा बोलना।
(२३) तम्हं - गुरु को 'तू'- ऐसे एकवचन से सम्बोधित करना।
(२४) तज्जाय - यदि गुरु कहे -“तुम यह कार्य करो", तो शिष्य यह जवाब दे कि 'तुम ही क्यों नहीं कर लेते हो', इस प्रकार गुरु जिन शब्दों में कहे, पुनः उन्हीं शब्दों में गुरु के सामने जवाब देना।
(२५) नोसुमण - गुरु के व्याख्यान देते समय शिष्य द्वारा मन में विकृत भावों को लाना।
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