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आचारदिनकर (खण्ड-४) 71 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि सुखरूप जो मोक्ष है, उसको देने वाला, देवेन्द्रों, असुरेन्द्रों एवं नरेन्द्रों के समूह से पूजित - ऐसे श्रुतधर्म के सारभूत रहस्य को पाकर कौन बुद्धिमान प्राणी धर्म की आराधना में प्रमाद करे ? अर्थात् कोई भी प्रमाद न करे। हे ज्ञानवान् भव्यजीवों। नय-प्रमाण से सिद्ध - ऐसे जैनदर्शन को मैं आदरपूर्वक नमस्कार करता हूँ। जिसका बहुमान किन्नरों, नागकुमारों, सुवर्णकुमारों और देवों तक ने भक्ति-पूर्वक किया है, ऐसे संयम की वृद्धि जिन-कथित सिद्धान्त से ही होती है। सब प्रकार का ज्ञान भी जिनोक्त-सिद्धांत में ही निःसंदेह रीति से वर्तमान है। जगत् के मनुष्य, असुर आदि सभी प्राणी तथा सकल पदार्थ जिनोक्त-सिद्धान्त में युक्ति एवं प्रमाणपूर्वक वर्णित हैं। यह शाश्वत सिद्धांत उन्नत होकर एकान्तवाद पर विजय प्राप्त करे और इसमें चारित्र-धर्म की भी वृद्धि हो। (पूज्य अथवा पवित्र) ऐसे श्रुतधर्म के आराधन हेतु मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। विशिष्टार्थ -
इस सूत्र में श्रुत शब्द अध्याहार है, उसका यहाँ ग्रहण करना
वन्दे शब्द में निहित नमः शब्द के सूचन के लिए चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया गया है। प्राकृत में चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति सभी जगह एक जैसी होती है।
सीमाधरस्स - सभी उत्तम वस्तुओं की सीमा को, अर्थात् मर्यादा को धारण करते हैं, अतः उसे सीमाधरस्स कहा गया है, उत्तम वस्तु किसी अन्य को नहीं, वरन् आगम को ही कहा गया है।
___ तमः . . . . मोहजालं - इन दो गाथाओं में जिनागम को नमस्कार किया गया है, अतः यहाँ वसंततिलका छंद में आगम के अनुसार धर्म की स्तुति के माध्यम से सारभूत जिनश्रुत की स्तुति की गई है। पुनः इसी प्रकार शार्दूल विक्रीड़ित छंद के राग में “सिद्धे भो.. ..." गाथा द्वारा जिनागम की स्तुति की गई है।
जिणमए - प्राचीन सर्वज्ञ ऋषियों द्वारा कथित होने से जो आगमरूप है। इस पद में “आर्ष" सूत्र से चतुर्थी के स्थान पर
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