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आचारदिनकर (खण्ड-४) 70 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
(वंदणवत्तियाए से लेकर अणुप्पेहाए तक के सभी पदों के विशेषण के रूप में वड्डमाणीए शब्द का ग्रहण करें।)
___ठामि काउसग्गं - मैं कायोत्सर्ग में स्थित होता हूँ। (कायोत्सर्ग की विशेष व्याख्या कायोत्सर्ग-आवश्यक में की गई है।)
अब इसकी विश्राम-संपदा बताते हैं, जो निम्न प्रकार से है -
१. अरह २. वंदण ३. सद्धा ४. अन्नत्थ ५. सुहम ६. एव ७. जाव ८. ताव - इस प्रकार इस स्तव की उपर्युक्त आठ संपदाए एवं दो सौ उनतीस आलापक हैं। यहाँ अर्हत् चैत्यस्तव की व्याख्या संपूर्ण होती है। - अब श्रुतस्तव की व्याख्या करते हैं -
इसमें सर्वप्रथम निर्विघ्नरूप से कार्य की सिद्धि हो, इसके लिए श्रुत की उत्पत्ति करने वाले तीर्थकर परमात्माओं को नमस्कार कर मंगलाचरण किया गया है। वइ इस प्रकार है -
___“पुक्खरवर दीवड्ढे धायइसंडे अ जंबुदीवे अ। भरहेरवय विदेहे धम्माइगरे नमसामि।।१।। तमतिमिरपडल विद्धं सणस्स सुरगण नरिंदमहियस्स। सीमाधरस्स वंदे पप्फोडिय मोहजालस्स ।।२।। जाइजरामरण सोग पणासणस्स कल्लाण पुक्खल विसाल सुहावहस्स। को देव दानव नरिंद गणच्चियस्स, धम्मस्स सार मुवलब्भ करे पमायं ।।३।। सिद्धे भो ! पयओ णमो जिणमए नंदी सयासंजमे, देवं नाग सुवन्न किन्नर गणस्सब्भूअ- भावच्चिए। लोगो जत्थ पइडिओ जगमिणं तेल्लुक्कमच्चासुरं, धम्मोवड्ढउ सासओ विजयओ धम्मुत्तरं वड्ढउ।।४।। भावार्थ -
अर्द्धपुष्करद्वीप, धातकीखंड एवं जम्बुद्वीप में (कुल मिलाकर ढाई द्वीप में) आए हुए भरत, ऐरावत तथा महाविदेह क्षेत्रों में श्रुतधर्म की आदि करने वाले तीर्थंकरों को मैं नमस्कार करता हूँ। अज्ञानरूपी अंधकार के समूह का नाश करने वाले, देवसमूह तथा राजाओं से पूजित एवं मोहजाल को सर्वथा तोड़ने वाले, मर्यादा को धारण करने वाले श्रुतधर्म को मैं वन्दन करता हूँ। जन्म-जरा-वृद्धावस्था, मृत्यु तथा शोक को नाश करने वाला, कल्याणकारक तथा अत्यन्त विशाल
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