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आचारदिनकर (खण्ड-४) 61 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
लोगुत्तमाणं - चौदह राजलोक के सुर, नर, तिर्यंच एवं दैत्यसभी में पूजनीय होने के कारण तथा अतिशय प्रभाव होने के कारण, उत्तम एवं सर्वोत्कृष्ट हैं, इसलिए उन्हें लोकोत्तम कहा गया है।
लोगनाहाणं - चौदह राजलोक के शासक, रक्षक, आश्रयदाता एवं (मोक्ष) मार्ग के निवेशक होने के कारण वे नाथ हैं, स्वामी हैं, इसलिए उन्हें लोकनाथ कहा गया है।
लोगहियाणं - लोक की रक्षा करने एवं उन्हें सन्मार्ग में स्थित करने के कारण कल्याणकारी तथा विश्वसनीय हैं, इसलिए उन्हें लोक का हित करने वाला कहा गया है।
लोगपइवाणं - दीपक के समान लोक की सद्-असद् वस्तु एवं तत्त्व का बोध कराने के कारण उन्हें लोक प्रदीप कहा गया है।
लोगपज्जोयगराणं - मोहान्धकार में निमग्न लोक के भावों को केवलज्ञानरूपी प्रकाश के माध्यम से प्रकाशित करने के कारण उन्हें लोक-प्रद्योतकर कहा गया है।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि प्रदीप एवं प्रद्योत में क्या अन्तर है ? तो कहते हैं कि दीपक उसके समक्ष रही हुई वस्तु को ही प्रकाशित करता है, किन्तु प्रद्योत तो सूर्योदय के समान भव्य एवं अभव्य-सभी पदार्थों को प्रकाशित करता है। (इसीलिए यहाँ ये दोनों शब्द अलग-अलग भावों की पुष्टि करने के लिए दिए गए है।)
अभयदयाणं - दयाधर्म का उपदेश एवं दयाधर्म के आचरण से सभी जीवों को अभयदान देने के कारण उन्हें अभयदाता कहा गया
चक्खुदयाणं - मोहान्ध से ग्रसित जीवों को ज्ञानरूपी चक्षु, श्रद्धारूपी चक्षु देने के कारण उन्हें चक्षु देने वाला कहा गया है।
मग्गदयाणं - स्वर्ग तथा सर्वइच्छित की पूर्ति करने वाले ऐसे मोक्षमार्ग को दिखाने के कारण उन्हें मार्गदाता कहा गया है।
__ शरणदयाणं - भव-भय से पीड़ित तथा राग-द्वेष आदि शत्रुओं . से पराभूत प्राणियों को शरण देने के कारण, उन्हें शरणदाता कहा गया है।
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